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विश्वसनीयता खो रहे खबरिया चैनल, प्रिंट और डिजिटल मीडिया पर टिकी हैं उम्मीदें

अगर जनता गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता की अपेक्षा रखती है तो मीडिया संस्थानों को उसे पूरा करना होगा। उनके पास अन्य विकल्प नहीं है

Oct 09, 2020 / 05:27 pm

shailendra tiwari

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संदीप घोष, लेखक, ब्लॉगर और बिजनेस लीडर, लीडरशिप कोच

कोरोना महामारी के बाद का एक सुखद पहलू यह रहा कि विज्ञापनदाता एक बार फिर प्रिंट मीडिया का रूख करने लगे, खास तौर पर क्षेत्रीय समाचार पत्रों का रुख। कहते हैं – ‘आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है।’ लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में जब अखबार वितरण में मुश्किलों का सामना करना पड़ा तो बहुत से प्रकाशकों ने डिजिटल माध्यम पर फोकस किया। नतीजा यह हुआ कि बहुत से शीर्ष समाचार पत्रों के डिजिटल संस्करणों को लोगों ने खुशी से सब्सक्राइब किया। मोबाइल एप के इस दौर में बहुत से पाठकों ने फोन, टैबलेट और पीसी पर अखबार पढ़ना पसंद किया।
एक ओर जहां यह उपभोक्ताओं की बदलती आदतों और चयन प्राथमिकताओं का ***** है, वहीं इससे यह भी संकेत मिलते हैं कि लोगों का टीवी पर दिखाई जाने वाली खबरों से मोह भंग होने लगा है। टीवी समाचारों का प्रारूप अब उबाऊ-सा होने लगा है। दूरदर्शन के दौर में लोग शाम तक की खबरों का जायजा टीवी पर लेते थे और खबरों को अधिक गहराई से पढऩे व समझने के लिए अगले दिन के अखबार का इंतजार करते थे।
यह परिदृश्य तब बदला, जब टीआरपी की दौड़़ में टीवी न्यूज चैनल सामान्य मनोरंजन चैनल्स के साथ प्रतिस्पद्र्धा करने लगे और खबरों का स्वरूप बदल कर ‘इन्फोटेनमेंट’ कर दिया गया। यहीं से टीवी न्यूज में ‘सनसनी’ श्रेणी अवतरित हुई और असल खबरें गायब होने लगीं, न्यूज स्टूडियो ऐसे अखाड़़ बन गए जहां हर शाम ‘नूरा कुश्ती’ होने लगी। यह परिपाटी इतनी बढ़ गई कि देश-दुनिया की खबरें जानने के लिए घंटों टीवी के सामने बैठे रहने के बावजूद दर्शक खाली हाथ ही रहता है।
पहले पाठकों-दर्शकों का रुझान सोशल मीडिया की ओर हुआ लेकिन जैसे ही ‘फेक न्यूज’ का मकड़जाल फैलने लगा, ट्विटर, फेसबुक और वॉट्सएप की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे। हालांकि कई न्यूज पोर्टल और यूट्यूब चैनल राष्ट्रीय, क्षेत्रीय व स्थानीय स्तर पर शुरू किए गए, लेकिन उन पर विश्वास करना मुश्किल ही रहा।
जैसे भोजन में केवल रोटी से काम नहीं चलता, वैसे ही केवल मनोरंजन से बुद्धिजीवियों की क्षुधा का शमन नहीं हो सकता। आखिरकार मानव सोचने-समझने की क्षमता वाला विवेकशील प्राणी है। सूचना और ज्ञान उसके मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है। मनोविज्ञान के ‘मैस्लो हाइरारकी’ सिद्धांत के अनुसार, मनुष्य की ये ‘स्वाभाविक’ जरूरतें सामाजिक व आर्थिक उत्थान के साथ स्वत: जन्म लेती हैं।
साथ ही कोई भी राष्ट्र अपने नागरिकों को अंधेरे में रख, देश-दुनिया की हलचलों से अनजान रख कर तरक्की नहीं कर सकता। इस संदर्भ में भी लिखित शब्दों को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि लिखित में व्यक्त विचार हमेशा अधिक परिष्कृत और स्पष्ट होते हैं। लिखित शब्दों की बढ़ती आवश्यकता का यह अंतराल ही प्रिंट मीडिया के लिए आशा की किरण दिखाता है, यह अखबार यानी प्रिंट मीडिया भी हो सकता है और डिजिटल स्वरूप भी।
बदलती जीवनशैली की मांग के अनुरूप लोग कहीं भी, किसी भी क्षण सूचनाओं-समाचारों से अवगत रहना चाहते हैं। ऐसे में, डिजिटल मीडिया को प्रोत्साहन मिलने की संभावनाएं अत्यधिक हैं। रेडियो और ऑडियो जगत का भविष्य भी उज्ज्वल है। कई मीडिया संस्थानों ने ‘पोडकास्ट’ फॉर्मेट अपनाना शुरू कर दिया है। संभव है टीवी चैनल्स स्वयं को नए सिरे से प्रस्तुत करने पर बाध्य हों, पर इसके लिए नए बिजनेस मॉउल की आवश्यकता होगी – संभवत: सब्सक्रिप्शन शुल्क पर आधारित।
कुल मिलाकर पाठक और दर्शक ही तय करने वाले हैं कि वे क्या चाहते हैं। अगर जनता गुणवत्तापूर्ण पत्रकारिता की अपेक्षा रखती है तो मीडिया संस्थानों को उसे पूरा करना होगा। उनके पास कोई और विकल्प नहीं है। अगर वे ऐसा नहीं करते तो कुछ ही समय में नए स्टार्टअप्स उन्हें पीछे छोड़ देंगे।

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