शिलांग में पिछले दिनों खासी समुदाय और मजहबी सिख समुदाय के बीच हिंसा भडक़ी। एक खासी लडक़े और सिख औरतों के बीच झड़प और गलतफहमी के बाद हालांकि उनमें समझौता भी हो गया, लेकिन कुछ देर बाद ही सिख या पंजाबी समुदाय पर हमला करने के लिए खासी लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई जिसे पुलिस ने खदेड़ा। इसके बाद अफवाह फैली कि खासी लोगों की हत्या हुई है और ज्यादा बड़ी तादाद में लोगों ने सिख मोहल्ले पर हमला किया।
इसके बाद वह हुआ, जिससे हमारी तरफ रहने वाले अल्पसंख्यक सालों से परिचित हैं। दुकानें और घर जलाए गए, सिखों पर हमला हुआ। यह तो आम व्यवहार है, प्रत्येक बहुसंख्यक और स्थानीय समुदाय इसी तरह ख़ुद से संख्या और ताकत में कमजोर और ‘बाहरी’ के साथ करता चला आया है। खासी समाज की ओर से मांग की जाने लगी कि बाहरी सिखों को निकाला जाए। वे स्थानीय लोगों के लिए खतरा हैं, वे शिलांग की सबसे महंगी जमीन पर नाजायज कब्जा करके बैठे हैं। जहां उन्हें मेहरबानी करके जगह दी गई थी, उसे वे अपनी मिल्कियत बना बैठे हैं, आदि-आदि।
यह सब जम्मू में या दिल्ली में रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में भी कहा जाता रहा है। वे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक हैं, यह कहकर चूंकि वे भी मुसलमान हैं, गुडग़ांव के अल्पसंख्यकों को रोहिंग्या बताकर उनके खिलाफ एक घृणा अभियान चलाया जाता रहा है। कहा जाता रहा है कि वे बाहरी हैं और उनकी नीयत स्थानीय लोगों की जमीन पर कब्जा करने की है।
कारण कितने मिलते-जुलते हैं। शिलांग में रहने वाले सिख भारत के लिए विदेशी नहीं, लेकिन शिलांग के लिए पराए कहे जाते रहे हैं, हालांकि उन्हें वहां रहते अस्सी साल होने को आए। वे दलित हैं और उनकी पहले की पीढ़ी सफाई का काम ही करती थी। अब वक्त गुजरा है और उनकी आबादी बढ़ी है। पेशा भी सिर्फ सफाई का नहीं रह गया है। लेकिन वे जिस जगह बसाए गए थे, उसकी कीमत भी बढ़ गई है। यह भी कहा जाता रहा है कि ठीक बीच बाजार में उनके रहने से गंदगी और तंगी बढ़ गई है और यह भी कि उनकी वजह से शहर और बाजार की ख़ूबसूरती पर भी असर पड़ता है। इसलिए उन्हें उस जगह से हटाया जाना चाहिए।
अपने ही देश में लगातार अपने घरों से भगाए जाने और बार-बार विस्थापित होने का अनुभव औरों का भी हो सकता है। शिलांग में जो अनुभव अभी दलित सिखों को हो रहा है, वह पहले बंगालियों के साथ किया जा चुका है। 1979 में बंगालियों की सफाई का अभियान स्थानीय समुदाय ने चलाया। नतीजा यह हुआ कि ज्यादातर राज्य छोडक़र चले गए। फिर तकरीबन दस साल के बाद यही नेपालियों के साथ दोहराया गया। उस हिंसा की चपेट में बिहारी भी आए। कुछ साल पहले फिर हिंसक वारदातें हुईं, जिनमें बाहरी व्यापारियों को निशाना बनाया गया।
शिलांग की स्थानीय आदिवासी आबादियों को दूसरी आबादियों के मुकाबले कई विशेष अधिकार मिले हुए हैं। फिर भी ‘बाहरी’ से उनकी असुरक्षा बनी ही हुई है और वह समय-समय पर भडक़ उठती है। ऐसा नहीं है कि इस हिंसा के कारणों की व्याख्या नहीं की जा सकती है। आर्थिक असुरक्षा या अवसरों की कमी के कारण बाहर से आए लोग खतरा मालूम पड़ सकते हैं। लेकिन किसी भी दृष्टि से यह हिंसा को जायज ठहराने की वजह नहीं। ‘बाहरी’ भी एक सापेक्षिक पद ही है। क्या खासी आदिवासी मेघालय में ही सीमित रहेंगे और क्या वे अन्य प्रदेशों या देशों में नहीं जाएंगे? जो एक जगह स्थानीय है, क्या वह दूसरी जगह बाहर का नहीं है?
शिलांग में सिखों की वकालत के लिए पंजाब सरकार ने एक प्रतिनिधिमंडल भेजा। दूसरे राज्य के लिहाज में मेघालय की सरकार भी सिख समुदाय की सुरक्षा के उपाय कर रही है। जैसे सिखों के लिए पंजाब है या तमिलों के लिए तमिलनाडु है, उसी तरह यदि किसी धार्मिक या सांस्कृतिक आबादी का अपना कोई राज्य न हो, तो वे किसके आसरे रहें?
यह समझना जरूरी है कि आदमी पैरों वाला प्राणी है, जड़ों वाला स्थिर पेड़ नहीं। उसकी फितरत एक जगह से दूसरी जगह जाना है। यह अलग-अलग वजह से हो सकता है। क्या कनाडा के लोग सिखों को बाहरी कहें या लंदन के अंग्रेज वहां बस गए एशिया मूल के लोगों को बाहरी कहें?
अभी सरकार रोहिंग्याओं से हर राज्य को सावधान कर रही है या डरा रही है। डराने का यह तर्क कहीं भी लागू हो सकता है, यह शिलांग की सिख विरोधी हिंसा से साबित है। इसलिए हमें आज बाहरी और स्थानीय की जटिलता पर नए सिरे से चर्चा करने की जरूरत है।