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नीति पर नीति क्यों? (अनंत मिश्रा)

आजादी के 21 साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी 1968 में पहली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति लेकर आईं। अठारह साल बाद 1986 में राजीव गांधी सरकार नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाई

Jul 01, 2016 / 05:54 pm

विकास गुप्ता

education policy

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देश को आजाद हुए सात दशक होने जा रहे हैं लेकिन आज तक हम ऐसी शिक्षा नीति नहीं बना पाए जिस पर संतोष किया जा सके और केन्द्र के साथ सभी राज्य सरकारें उस नीति पर अमल कर सकें। राजनीतिक दुराभाव को दरकिनार करते हुए राजनीतिक दल भी उस राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर एक राय रख सकें। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे के अहम बिंदु दो दिन पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने जारी किए। पता चला कि आठवीं कक्षा तक बच्चों को फेल न करने की नीति को समाप्त किए जाने पर मंथन चल रहा है। हरेक भारतीय के मन-मस्तिष्क में सवाल उठता है कि फेल न करने की इस नीति को शुरू ही क्यों किया गया था? आखिर इसके पीछे मंशा क्या थी? तथा जिन कारणों से इसे अब बंद करने पर विचार किया जा रहा है उन कारणों की आशंका क्या पहले नहीं थी? सवाल अनेक हैं लेकिन उनके जवाब देने वाला कोई नहीं।

आजादी के 21 साल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी 1968 में पहली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति लेकर आईं। अठारह साल बाद 1986 में राजीव गांधी सरकार नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाई। नीति का मकसद महिलाओं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को शिक्षा में समान अवसर मुहैया कराना था। नीति के तहत ओपन यूनिवर्सिटी खोलने की शुरूआत भी की गई। नतीजा इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी सामने आई। ग्रामीण शिक्षा के विकास पर जोर देने की बात भी जोर-शोर से की गई। 1992 में पी.वी. नरसिम्हा राव और फिर 2005 में मनमोहन सिंह सरकार ने भी अपने-अपने तरीके से शिक्षा नीति में बदलाव किए। देशभर के लिए कॉमन एन्ट्रेन्स टेस्ट लेने की शुरूआत हुई। अब नरेन्द्र मोदी सरकार भी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बदलाव पर विचार कर रही है। दसवीं की परीक्षा दो चरणों में कराने के साथ शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करने की सिफारिश भी की जा रही है। लेकिन सवाल फिर वही कि ये तमाम कवायद कितना रंग लाएगी? माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की परीक्षाओं में यदि पैसे ले-देकर विद्यार्थी पास हो रहे हों। सिर्फ पास ही नहीं हो रहे हों, शिक्षा बोर्ड में टॉप भी कर रहे हों।

प्रतियोगी परीक्षाओं में नकल का साम्राज्य स्थापित हो रहा हो। नकल माफिया देशभर में लाखों रुपए लेकर डॉक्टर-इंजीनियर बना रहे हों। क्या उस देश में चंद लोगों के एक कमरे में बैठकर बनाई गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति कारगर साबित हो पाएगी? श्क्षिा नीति में अपनी विचारधारा के कुछ रंग भर देने से क्या ये पूरे देश में न सिर्फ स्वीकार्य हो पाएगी बल्कि सफल भी हो पाएगी? इसे लेकर उम्मीद कम और आशंका अधिक है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति नए सिरे से बने लेकिन व्यापक विचार-विमर्श के बाद। सभी राजनीतिक दलों की राय का समावेश करके। बिना ये सोचे कि हम सत्ता में हैं तो दूसरों से क्यों पूछें? ये समझना होगा कि जितने सुझाव आएंगे शिक्षा नीति के सफल होने की उतनी ही संभावना बढ़ेगी। नई शिक्षा नीति आने में भले थोड़ी देर और हो जाए लेकिन ये आए तो दुरस्त तरीके से आए। ताकि इस पर किसी को अगुंली उठाने का मौका ना मिले। ध्यान ये भी रहे कि कोई भी राष्ट्रीय नीति हो वह देश की होती है न कि किसी राजनीतिक दल की। नीति तभी सफल होगी जब उसमें राष्ट्र सर्वोपरि नजर आए।

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