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स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा है, राजनीतिक दल खुद ही करें आय-संपत्ति का खुलासा

पिछले 15 वर्षों से राजनीतिक दलों की भरसक कोशिश रही है कि मतदाताओं को चुनावी फंडिंग के बारे में पता न चले

नई दिल्लीSep 29, 2020 / 08:12 pm

shailendra tiwari

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लोकतंत्र में राजनीति और चुनावों में पैसे की भूमिका बढ़ती जा रही है। कई रिपोर्टों में सामने आया कि 2019 के चुनावों में अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव से ज्यादा पैसा खर्च हुआ। इससे लोकतंत्र, चुनाव और नागरिकों पर क्या प्रभाव पड़ता है; यह जानने के लिए चुनावों के तीन महत्वपूर्ण घटक मतदाता, राजनीतिक दल और चुनावों में चंदा देने वालों के उद्देश्यों को समझना होगा। मतदाता सुशासन चाहते हैं। वे चाहते हैं कि कर के रूप में वे सरकार को जो पैसा देते हैं, उसका उपयोग सरकार नीति निर्माण और उन सेवाओं की बेहतरी के लिए करे।

राजनीतिक दलों का सत्ता में आना ही लक्ष्य होता है। जो लोग चंदा देते हैं, वे चाहते हैं कि जीतने के बाद उन्हें फायदा मिले। चंदा देने वाले लोग या तो किसी प्रकार की कानूनी जांच से बचे रहने के इरादे से चंदा देते हैं या वे कहते हैं कि पार्टियों ने उनसे जोर जबरदस्ती से चंदा लिया है।
कुछ ही ऐसे हैं, जो जन कल्याण के कार्यों के लिए पार्टी को चंदा देते हैं। कुछ प्रतिष्ठित एजेंसियों ने सार्वजनिक स्तर पर जो आंकड़े उपलब्ध करवाए हैं, उनसे ज्ञात होता है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में 50 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्चा हुआ था। सवाल है कि ये पैसा आता कहां से है? राष्ट्रीय दलों द्वारा आधिकारिक तौर पर घोषित आय का आकलन करें तो पाएंगे कि 2004 से लेकर 2019 के बीच सभी राजनीतिक दलों की कुल आय 11 हजार करोड़ रूपए ही थी, फिर बाकी खर्च कैसे मैनेज हुआ? राजनीतिक पार्टियां सिर्फ और सिर्फ अगले चुनाव के लिए चंदा जुटाने में लगी रहती हैं।

मौजूदा स्थिति को तीन चरणों में समझा जा सकता है। पहला, राजनीतिक दलों द्वारा बताए गए चंदा उगाही के आंकड़ों में वृद्धि देखी गई। 2013-14 के आम चुनाव से पहले यह राशि 1,500 करोड़ से थोड़ी ज्यादा थी। 2018-19 तक ये 6,400 करोड़ हो गई। कुछ पैसा अघोषित भी हो सकता है। दूसरा, लोकसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या 2009 की 21 से 2019 में 43 फीसदी हो गई। तीसरा, आपराधिक रिेकॉर्ड वाले धनी उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की संभावना मध्यमवर्गीय ईमानदार उम्मीदवारों के मुकाबले ज्यादा होती है।

अन्य देशों में राजनीतिक दलों की फंडिंग को लेकर अधिक पारदर्शिता होती है। देश के कुछ कॉर्पोरेट हाउस अक्सर जांच के घेरे में रहते हैं और वे राजनीतिक पार्टियों के भी करीबी हैं। ऐसे आरोप भी लगते हैं कि पार्टियां इन व्यावसायिक घरानों को फायदा पहुंचाती हैं। चूंकि पुलिस और सीबीआइ राजनीतिक दलों के प्रभाव में होते हैं। इसलिए दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होने की संभावना भी नगण्य रह जाती है। इस संपूर्ण ‘व्यवस्थाÓ में लोक कल्याण की नीतियां और बजट आवंटन भी प्रभावित होता है।
सामाजिक क्षेत्र के व्यय में कटौती हो जाती है। इस बीच, ब्याज दरों में कटौती और आयकर में छूट संबंधी उपायों का फायदा भी कॉर्पोरेट घरानों को मिलता है। मान लीजिए, एक सेवानिवृत्त व्यक्ति ने यदि बचत के लिए फिक्स डिपोजिट करवा रखा है, तो ब्याज दर कम होने से उसको अच्छा खासा नुकसान हो जाएगा। दूसरी ओर कर्ज में डूबे व्यावसायिक घरानों को ब्याज दर कम होते ही लाखों का फायदा हो सकता है।

पिछले 15 वर्षों से राजनीतिक दलों की भरसक कोशिश रही है कि मतदाताओं को चुनावी फंडिंग के बारे में पता न चले। चुनावी बॉंन्ड इसी कोशिश का व्यापक रूप है। स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा है कि राजनीतिक दल स्वत:प्रेरणा से अपनी आय और संपत्ति का सही ब्यौरा सार्वजनिक करें और विश्व के समक्ष मिसाल कायम करें।

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