राजनीतिक दलों का सत्ता में आना ही लक्ष्य होता है। जो लोग चंदा देते हैं, वे चाहते हैं कि जीतने के बाद उन्हें फायदा मिले। चंदा देने वाले लोग या तो किसी प्रकार की कानूनी जांच से बचे रहने के इरादे से चंदा देते हैं या वे कहते हैं कि पार्टियों ने उनसे जोर जबरदस्ती से चंदा लिया है।
मौजूदा स्थिति को तीन चरणों में समझा जा सकता है। पहला, राजनीतिक दलों द्वारा बताए गए चंदा उगाही के आंकड़ों में वृद्धि देखी गई। 2013-14 के आम चुनाव से पहले यह राशि 1,500 करोड़ से थोड़ी ज्यादा थी। 2018-19 तक ये 6,400 करोड़ हो गई। कुछ पैसा अघोषित भी हो सकता है। दूसरा, लोकसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या 2009 की 21 से 2019 में 43 फीसदी हो गई। तीसरा, आपराधिक रिेकॉर्ड वाले धनी उम्मीदवारों के चुनाव जीतने की संभावना मध्यमवर्गीय ईमानदार उम्मीदवारों के मुकाबले ज्यादा होती है।
अन्य देशों में राजनीतिक दलों की फंडिंग को लेकर अधिक पारदर्शिता होती है। देश के कुछ कॉर्पोरेट हाउस अक्सर जांच के घेरे में रहते हैं और वे राजनीतिक पार्टियों के भी करीबी हैं। ऐसे आरोप भी लगते हैं कि पार्टियां इन व्यावसायिक घरानों को फायदा पहुंचाती हैं। चूंकि पुलिस और सीबीआइ राजनीतिक दलों के प्रभाव में होते हैं। इसलिए दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होने की संभावना भी नगण्य रह जाती है। इस संपूर्ण ‘व्यवस्थाÓ में लोक कल्याण की नीतियां और बजट आवंटन भी प्रभावित होता है।
पिछले 15 वर्षों से राजनीतिक दलों की भरसक कोशिश रही है कि मतदाताओं को चुनावी फंडिंग के बारे में पता न चले। चुनावी बॉंन्ड इसी कोशिश का व्यापक रूप है। स्वस्थ लोकतंत्र का तकाजा है कि राजनीतिक दल स्वत:प्रेरणा से अपनी आय और संपत्ति का सही ब्यौरा सार्वजनिक करें और विश्व के समक्ष मिसाल कायम करें।