मीडिया ट्रायल की वजह से साक्ष्य ना होते हुए भी जहां एक तरफ व्यक्ति पूरे समाज में अपनी साख खो देता है, वहीं जांच एजेंसियों पर उसको गिरफ्तार करने का एक मानसिक दबाव भी बनता है। आनन-फानन में वह गिरफ्तार किया जाता है, जिसके पश्चात निचली अदालत में भी उसको राहत मिलना मुश्किल हो जाता है। पांच से सात साल के पश्चात जब अभियुक्त साक्ष्य के अभाव में बरी होता है, तो उसका मान-सम्मान, प्रतिष्ठा सभी कुछ समाप्त हो चुका होता है।
उदाहरणार्थ वर्ष 2014 में जब 2-जी स्कैम की जांच सीबीआइ कर रही थी, तब एयरटेल कंपनी के मालिक एवं सीईओ सुनील मित्तल को अभियुक्त मात्र इस आधार पर बना लिया गया की मीडिया के हाथ में कहीं से कुछ फोटो आ गई थी, जिसमें सुनील मित्तल अभियुक्त मंत्री के रिश्तेदार की शादी में सम्मिलित दिखे थे। जिस प्रकार से इस तथ्य को बार-बार टीवी चैनलों पर प्रदर्शित किया गया, उससे जांच एजेंसियों ने दबाव में आकर अंतत: सुनील मित्तल को अभियुक्त बना लिया।
इसलिए यह अतिआवश्यक है कि मीडिया ‘न्यूज एवं ‘नॉइज’ के मध्य एक लक्ष्मण रेखा खींचे, अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब देश का चौथा स्तंभ बाकी तीनों स्तंभों के लिए भस्मासुर बन जाएगा।