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अति आत्मविश्वास पड़ा भारी, डगमगा गई भाजपा की नैया

विश्वसनीय स्थानीय नेतृत्व तथा क्षेत्रीय जन मानस को समझे-स्वीकारे बिना चुनावी रण नहीं जीता जा सकता।

जयपुरJun 05, 2024 / 03:00 pm

विकास माथुर

भाजपाई रणनीतिकारों की कवायद पर नजर डालें तो समझना मुश्किल नहीं कि उन्हें कहीं न कहीं इसका थोड़ा-बहुत डर तो था कि बहुमत जुटाने के लिए संकट का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में संभावित नुकसान की भरपाई की कवायद पहले ही शुरू हो गई थी। यह भी समझना होगा कि पिछले साल विपक्षी दलों का गठबंधन ‘इंडिया’ बनने के पहले से ही भाजपाई रणनीतिकार सक्रिय हो गए थे।
महाराष्ट्र में जो घटनाक्रम हुआ, उसका उद्देश्य सिर्फ वहां की सत्ता तक सीमित नहीं था। यह अहसास भी पार्टी नेतृत्व को जरूर रहा होगा कि शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा), कांग्रेस और कांग्रेस का गठबंधन महाराष्ट्र में मुश्किलें पेश कर सकता है। इसीलिए शिवसेना और राकांपा में क्रमश: एकनाथ शिंदे और अजित पवार के जरिए जो विभाजन का खेल हुआ उसमें भाजपा की शह का आरोप भी लगा। शिवसेना और राकांपा में विभाजन के बिना यह झटका ज्यादा जोरदार हो सकता था। बिहार के जिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर भाजपा तमाम तरह के हमले करती रही, उन्हें भी एक बार अपने खेमे में इसी रणनीति के तहत लाया गया। कारण साफ था कि ‘इंडिया’ गठबंधन रफ्तार पकडऩे लगा था। इसके सूत्रधार नीतीश के ही पाला बदल जाने से ‘इंडिया’ को जोरदार झटका लगा।
अपना चुनावी गणित बेहतर करने के लिए ही भाजपा उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी के उस राष्ट्रीय लोकदल को राजग के पाले में लाई, जो पिछले एक दशक से समाजवादी पार्टी से गठबंधन में राजनीति कर रहा था। भाजपाई रणनीतिकारों को यह भी अहसास था कि उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, झारखंड और गुजरात जैसे अपने प्रभाव क्षेत्रों में पार्टी अपना लगभग सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है। ऐसे में वहां सीटें बढऩे के बजाय घटने की ही आशंका रहने वाली है। अपने प्रभाव क्षेत्रों में झटके का अर्थ भी यही मानना चाहिए कि कोई भी पार्टी बहुमत का आंकड़ा छूने से चूक सकती है। वैसे भी गठबंधन तो सत्ता का खेल है। इसलिए किसी पर भी आंख मूंद कर विश्वास नहीं किया जा सकता। संभावित नुकसान की भरपाई के लिए भाजपा ने दक्षिण भारत में इसीलिए अपनी चुनावी व्यूह रचना नए सिरे से की।
दक्षिण में वह अपने एकमात्र दुर्ग कर्नाटक की सत्ता भी पिछले साल कांग्रेस के हाथों गवां चुकी थी। कर्नाटक में भाजपा ने पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के उसी जद सेक्यूलर से गठबंधन भी किया, जिसे विधानसभा चुनाव में परिवारवादी और भ्रष्ट बताया था, तो आंध्र प्रदेश में उन्हीं चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी से हाथ मिला लिया, जो 2018 में तमाम तरह के आरोप लगाते हुए एनडीए का साथ छोड़ गए थे। फिल्म अभिनेता पवन कल्याण की जन सेना पार्टी भी आंध्र प्रदेश में इस गठबंधन का हिस्सा बनी। तेलंगाना की सत्ता पिछले साल कांग्रेस ने केसीआर से छीन ली थी। वहां अपना प्रदर्शन और बेहतर बनाने के लिए भाजपा ने लोकसभा चुनाव को अपने और कांग्रेस के बीच दो धु्रवीय बनाने का दांव चला तो तमिलनाडु और केरल में भी अपने पैर जमाने की हरसंभव कोशिश की।
चुनाव परिणाम देखें तो एक हद तक भाजपा को इस कवायद का लाभ भी मिला है। अगर भाजपा ने दक्षिण के साथ ही ओडिशा में भी आक्रामक रणनीति नहीं अपनायी होती तो शायद अंतिम नतीजों में सत्ता का संतुलन बदल भी सकता था। अगर भाजपा चार सौ पार के अपने दावों से पीछे छूट गई तो शायद उसका एक बड़ा कारण उसका अति आत्मविश्वाास भी है। कुछ राज्यों में बड़े नेताओं को दरकिनार करना भी महंगा जरूर पड़ा होगा।
उत्तर प्रदेश में भाजपा को सबसे बड़ा झटका लगना यही संकेत दे रहा है कि वहां की वास्तविक परिस्थितियों का सही आकलन करने से आलाकमान चूक गया। भाजपा का आकलन पश्चिम बंगाल की बाबत भी गलत साबित हुआ।विश्वसनीय स्थानीय नेतृत्व तथा क्षेत्रीय जन मानस को समझे-स्वीकारे बिना चुनावी रण नहीं जीता जा सकता—लोकसभा चुनाव परिणामों का यह संदेश भाजपा समेत सभी दलों के लिए एक जरूरी सबक है।
— राजकुमार सिंह

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