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खुद ‘मॉडिफाई’ हों मोदी

बिहार के चुनाव नतीजों में कई संदेश छिपे हैं। खासकर वर्तमान राजनीति
के सबसे बड़े चेहरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए। पहले केंद्र और फिर
दिल्ली को छोड़ राज्य दर राज्य में आगे बढ़ रहा विजय रथ बिहार में थम

Nov 10, 2015 / 11:52 pm

शंकर शर्मा

Opinion news

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बिहार के चुनाव नतीजों में कई संदेश छिपे हैं। खासकर वर्तमान राजनीति के सबसे बड़े चेहरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए। पहले केंद्र और फिर दिल्ली को छोड़ राज्य दर राज्य में आगे बढ़ रहा विजय रथ बिहार में थम गया। एनडीए को करारी हार का सामना करना पड़ा। मोदी की कार्यशैली और अमित शाह से उनकी जोड़ी पर सवालिया निशान लग रहे हैं। उनके द्वारा देश की जनता को किए विकास के वादों का हिसाब मांगा जाने लगा है। आखिर मोदी को सत्ता के बंटवारे से लेकर कार्यशैली और जिम्मेदारी तक खुद को कैसे करना होगा मॉडिफाई? इसी पर पेश है आज का स्पॉटलाइट…


वाजपेयी से सीखें, संघ से रखें थोड़ी दूरी
किंगशुक नाग राजनीतिक विश्लेषक
नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी को आदर्श मानकर चलना चाहिए। मोदी को अपनी क्षमताओं का बेहतर इस्तेमाल करते हुए आरएसएस से दूरी बनाए रखनी होगी। अभी सरकार में संघ हावी दिख रहा है। बिहार चुनाव से पहले गोमांस और आरक्षण का मुद्दा उछाल दिया।

जब वाजपेयी सरकार में आए तो उन्होंने गैर संघी, गैर-भाजपाई लोगों से खुद को घेरे रखा। जॉर्ज फर्नांडीस, जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, बृजेश मिश्रा आदि को पास रखा। भारतीय प्रधानमंत्री को एक मध्यम मार्ग लेना होता है। कोई अतिवादी रास्ता नहीं ले सकते। वाजपेयी को भी दिक्कतें आती थीं। तत्कालीन संघ प्रमुख केंद्र सरकार में कई दफा दखल करते थे। लेकिन उन्होंने बखूबी संघ की दखल नहीं होने दी। वाजपेयी को भी दिक्कतें तब आईं जब 2002 के बाद संघ हावी हो गया। वायपेयी ने बाद में यह कबूला भी कि वे गुजरात की वजह से हारे हैं। इसलिए मोदी के आगे बढऩे के अवसर भी संघ से उचित दूरी रखने की क्षमता पर ही निर्भर हैं।

गुजरात में ‘वन मैन शो’ था। दिल्ली में ‘वन मैन शो’ नहीं चल सकता। मोदी जीते तो कहा गया कि भारत ‘मॉडिफाइड’ हो गया। पर मोदी खुद ही ‘मॉडिफाई’ नहीं हो पाए। गुजरात में मोदी एक राज्य के मुखिया थे, अब उनके हाथ में देश की कमान है। उन्होंने अमित शाह के साथ जोड़ी बना ली। शाह की चुनावी रणनीति के बूते पूरे देश को थोड़े ही जीता जा सकता है, न ही पूरे देश की शाह को समझ है। बिहार में दोनों ही हावी रहे। स्थानीय लीडरशिप को दरकिनार किया गया। एक किस्म से अहंकार होने का संदेश भी जनता के बीच गया है।

बहुमत बना बेडिय़ां
मेरा मानना है कि अगर मोदी सरकार पूर्ण बहुमत में नहीं होती तो हो सकता है मोदी बेहतर काम कर पाते। जैसे वाजपेयी के वक्त एनडीए की सरकार थी तो उनका संघ को यही तर्क रहता था कि वे बहुमत न होने के कारण हिंदुत्व का एजेंडा नहीं बढ़ा सकते। फिलहाल पूर्ण बहुमत मोदी के लिए पैरों की बेडिय़ां भी बन गया है। क्योंकि संघ अपना एजेंडा आगे बढ़ाने पर तुला है। इसमें जाहिर तौर पर मोदी को दिक्कतें आती रहेंगी। लगातार गैर जरूरी बयानबाजी ने मोदी की छवि बिगाड़ी है। जब वे बेलगाम जुबां पर लगाम नहीं लगा पाते हैं तो एक कड़क पीएम भी असहाय नजर आने लगता है। यह संदेश दुनिया भर में जाता है। असहिष्णुता मार्च ने छवि ज्यादा खराब की है। खासतौर पर पश्चिमी देशों में एक नकारात्मक संदेश गया है। अब मोदी ब्रिटेन दौरे पर जाने वाले हैं। बिहार चुनाव के नुकसान से मोदी भलीभांति वाकिफ हैं। यह उनके लिए एक ‘रिएलिटी चेक’ साबित होगा।

असल में मोदी तेजी से अर्थव्यवस्था की तरक्की के जिस वादे के साथ दिल्ली आए थे, वह अभी पूरा होता दिख नहीं रहा है। हालात कमोबेश पुराने ही हैं। धीरे-धीरे कॉरपोरेट की भी परेशानी जाहिर होने लगी है। यानी जो मजबूत वर्ग मोदी के साथ था, वहां से भी उनका समर्थन कमजोर हो रहा है। उनकी सरकार में खुद सहयोगी दल, शिवसेना, अकाली दल से अच्छे सम्बंध नहीं हैं। शिवसेना आए दिन मोदी को निशाना बना रही है। यह सब नकारात्मक संदेश जनता में जाता है। जरूरी है कि मोदी को अपना फोकस सिर्फ और सिर्फ विकास पर रखना चाहिए।


अस्तित्व की लड़ाई में कांग्रेस
कांग्रेस के लिए बिहार चुनाव एक राहत की सांस तो है पर अब उसके सामने सवाल और बड़े हो गए हैं। कांग्रेसजनों की राहुल गांधी से जो उम्मीदें थीं, वे टूट चुकी हैं। वे 45 साल के हैं और उनमें बहुत राजनीतिक महत्वाकांक्षा पार्टी कार्यकर्ताओं को दिखाई नहीं दे रही है। राहुल अंतद्र्वंद्व से ही गुजरते रहे हैं। बिहार चुनाव में सहयोगी के बल पर मिली जीत के बाद उन्हें फिर सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा।

आजादी के बाद से कांग्रेस के बड़े नेताओं को यह मानना रहा कि कांग्रेस को देश के लिए ऐतिहासिक भूमिका निभानी है। हमेशा से कांग्रेस ही सरकार में मुख्य भूमिका में रहती थी। पुराने कांग्रेसी नेता -के. करुणाकरण, प्रणब मुखर्जी का मानना रहा कि कांग्रेस को राज्यों में ‘माइनर पार्टनरÓ नहीं रहना चाहिए। पर कांग्रेस की अब वह ऐतिहासिक जिम्मेदारी खत्म-सी हो गई है। अब कई राज्यों में वह प्रमुख विपक्षी दल तक नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर वह लीडर की भूमिका में नहीं है।

राहुल का खास रोल नहीं
हालांकि राहुल अभी प्रधानमंत्री बनने की रेस में तो कहीं नहीं हैं। पर अगले 5 या 10 साल में मोदी के खिलाफ नीतीश जैसा कोई नेता ताकतवर बनकर उभरता है तब राहुल के लिए रास्ता और चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। बिहार की जीत में राहुल की कोई खास भूमिका नहीं है। हां, नीतीश-लालू के बीच जो भरोसे की कमी थी, उसे पूरा करने में कांग्रेस ने भूमिका जरूर निभाई। बिहार की जीत के बाद राहुल गांधी को वक्त फिर एक मौका दे रहा है। असम का चुनाव होना है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल वहां प्रमुख दलों के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।

एक राजनीतिक दल के दबदबे का पैमाना होता है सरकार में रहना। इस मामले में कांग्रेस लगातार पिछड़ रही है। 2014 में मोदी जिस विचारधारा का तूफान लेकर आगे बढ़े थे, वह अभी थमा है। कांग्रेस के पास यह मौका है, जब वह फिर खोया आधार बना सकती है। इंदिरा गांधी को भी यूनाइटेड फ्रंट ने हरा दिया था, भले ही वह टूट गया। पर अभी कांग्रेस के पास एकजुटता से भाजपा को रोकने का मौका है। पर बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस के स्वभाव में कभी ‘फोलोअरÓ बनना रहा नहीं है। राहुल 10 साल यूपीए की सरकार में मंत्री तक नहीं बने। वे कहते हैं कि ‘फस्र्ट डिज़र्व दैन डिज़ायरÓ यानी पहले काबिल बनो फिर उसकी इच्छा करो। लेकिन अब तक उनकी काबिलियत पर सवाल ही उठते रहे हैं।

वे केंद्र में रहकर मोदी को चुनौती नहीं दे पाए। न ही राज्यों में अपने बूते सरकार बनवाने में कामयाब हो पाए। राजनीति में सैद्धांतिक तौर पर कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के पास अब असम, पंजाब में अपनी ताकत दिखाने का मौका है। पर उसके सामने कुछ गूढ़ प्रश्न हैं, जिनका जवाब आसान नहीं है। हालांकि कांग्रेस के पास जो हारने वाली स्थिति थी, वो बिहार के जनादेश के बाद थोड़ी बदली है। राजनीतिक आधार बनाने के लिए वह गैर भाजपाई दलों को साथ लेती रहे तो फिर उसके पांव जम सकते हैं। वरना जैसे अतीत में यूनाइटेड फ्रंट खत्म हुआ या जनता दल खत्म हो गया, वैसे ही अस्तित्व का सवाल कांग्रेस के सामने भी खड़ा हो जाएगा।

अभी कई इम्तिहान बाकी
मुझे लगता है कि कांग्रेस हारती रही तो राहुल गांधी का विरोधी धड़ा अलग भी हो सकता है। बिहार का जनादेश भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस के लिए भी मनन करने का संदेश है। अब उसे अस्तित्व बनाए रखने की लड़ाई लडऩी है। अभी कई इम्तिहान बाकी हैं। अगर कांग्रेस पुनर्विचार करती है तो आने वाले वक्त में उसकी स्थिति सुधर सकती है। पर उसके लिए कुछ त्याग करना पड़ेगा जो कि अभी तक हुआ नहीं है। अगर यह नहीं हुआ तो हो सकता है कि कांग्रेस में एक धड़ा अलग भी हो जाए।


जमीनी हकीकत से परे जुमले बने गलफांस
प्रो. संदीप शास्त्री लोकनीति
बिहार चुनाव में एनडीए की हार कई मायनों में एमजीबी (महागठबंधन) की जीत से बड़ी खबर रही है। लोगों की जुबान पर सबसे पहले आया कि बिहार में भाजपा या दूसरे शब्दों में कहें कि एनडीए हार गई। आखिर क्यों नहीं। वर्तमान भारतीय राजनीति का सबसे बड़े चेहरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एनडीए की ओर से प्रचार अभियान की कमान संभाल रखी थी। एनडीए ने भी नरेंद्र मोदी को जीत के लिए जिम्मा दे रखा था।

एनडीए खेमे में आशाएं थीं कि झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र का विजय रथ बिहार में भी आगे बढ़ेगा। लेकिन चुनाव नतीजों ने भाजपा समेत एनडीए की आशाओं पर पानी फेर दिया। विपक्षी दलों को जुबानी हमलों का मौका मिल गया। कहा जाने लगा कि बिहार की हार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के खिलाफ जनादेश है। लेकिन मेरा मानना है कि ये केंद्र सरकार के खिलाफ जनादेश नहीं है। इसके पीछे का तर्क है हमारा सर्वे में सामने आए आंकड़े।

इनके अनुसार बिहार के ज्यादातर लोगों का कहना था कि बिहार में नीतीश कुमार और केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार अच्छा काम कर रही है। लोगों की राय थी कि बिहार में नीतीश कुमार का पिछले एक दशक के दौरान का कार्यकाल विकास उन्मुखी रहा है। बस, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यहीं गलती हो गई। यूं कहें तो मोदी के रणनीतिकारों ने बिहार में कुछ ऐसे जुमलों से वोट बटोरने की सोची जो कि जमीन पर कहीं थे ही नहीं। ये गलफांस बन गए। जैसे बिहार में जंगलराज, पिछड़ापन और आधारभूत सुविधाओं का अभाव है। हमने अपने सर्वे में पाया कि आम धारणा से विपरीत सर्वे में शामिल अधिकांश लोगों का कहना था कि दस के पैमाने पर बिहार चार-पांच नंबर पर है।

जनता ने किया पलटवार
मोदी ने वार किया, लेकिन बिहार की जनता ने पलटवार कर दिया। पिछले 15 वर्षों के वोटिंग पैटर्न को यदि हम देखें तो पाएंगे कि केंद्र अथवा राज्य जहां की भी सरकारों ने अच्छा काम किया है वहां कि जनता ने उन्हें फिर से शासन का मौका दिया है। पूर्ववर्ती यूपीए सरकार को भी जनता ने दूसरी पारी का मौका इसलिए दिया था कि यूपीए-1 के दौरान लागू की गईं नरेगा जैसी योजनाओं से ग्रामीण विकास के क्षेत्र में खासी प्रगति हुई थी। अब यदि हम देखें कि बिहार की हार के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी में क्या असर हो सकता है तो सबसे पहले मोदी को लोकसभा चुनावों के दौरान किए गए अपने वादों को पूरा करना होगा। लोगों के अच्छे दिन लाने वाले नारे को हकीकत बनाना होगा।

‘सियासी घमंडÓ के पारे को भी ये हार ठंडा करेगी। भाजपा और सहयोगी दलों की कैमिस्ट्री में बदलाव आ सकता है। केंद्र में एनडीए की सरकार के गठन के समय भी विभागों के बंटवारे को लेकर सहयोगी दलों में विरोध के स्वर थे। कुछ का कहना था कि उन्हें बड़े मंत्रालय नहीं दिए गए। लेकिन उस वक्त ये सुर ज्यादा तेज नहीं हो पाए। लेकिन पहले दिल्ली और अब बिहार में हार के बाद सहयोगी दल सरकार में और भागेदारी की मांग करेंगे। ऐसे में जल्द ही मंत्रिमंडल में विस्तार हो सकता है। हार की जिम्मेदारी सामूहिक कहना एक बात है और असल में अलग बात है। अगले साल तमिलनाडू, प. बंगाल, केरल और असम में चुनाव होने हें। इनमें से असम को छोड़कर किसी भी राज्य में भाजपा वर्तमान हालात को देखते हुए सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में गठबंधन की राजनीति और तेज होगी। साथ ही गैर भाजपावाद का नारा और गूंजेगा। देश की राजनीति में कांग्रेस राज्यों में हाशिये पर खिसक रही है।

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