पिछले कई दिनों से फिल्म पद्मावती को लेकर धरने, प्रदर्शन, धमकियां और फिल्म की नायिका के सिर काटने जैसी घोषणाओं को देखते हुए यह लगता ही नहीं है कि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे है। ऐसा लगता है जैसे इस देश का लोकतंत्र जाति और कबीलाई लोकतंत्र के रूप में परिणित हो रहा है। बंबइया फिल्मो को लेकर यदा-कदा ऐसे विरोध के स्वर पहले भी उभरते रहे हैं। कई बार फिल्मों के निर्माता-निर्देशक फिल्म को बिकाऊ बनाने के लिए भी विरोध करवाते है। आरक्षण को लेकर कई समाज और जातियां भी शासन के विरोध में खड़ी होती रही है। लेकिन, इस बार बात कुछ और है।
राजपूताना का ऐसा समुदाय जिसने शताब्दियों तक शासन किया, वह अपने मान-सम्मान और इतिहास में छेड़छाड़ को लेकर पद्मावती फिल्म का व्यापक पैमाने पर विरोध कर रहा है। विडम्बना यह है कि फिल्म तो अभी किसी ने देखी ही नहीं है। अधिकांश प्रदर्शनकारी भी अफवाहों और समाज के नेताओं द्वारा कही गई बातो को लेकर ही विरोध पर उतर आये है। यह विरोध राजनैतिक व्यवस्था और उसके संचालन कर्ताओं के चरित्र को भी उजागर कर गया है।
सामान्यत: नागरिक समाज या किसी समूह का विरोध अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर सत्ता के विरुद्ध होता है और ऐसा होना स्वाभाविक भी है। लेकिन, आश्चर्य तो तब होता है जबकि राजस्थान की वर्तमान सरकार ने एक काले कानून का अध्यादेश जारी किया। मीडिया ने पुरजोर शब्दों में इसके विरुद्ध आवाज उठाई। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ लेकर बनाई गई फिल्म का यदि जागरूक वर्ग ने विरोध किया तो उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुठाराघात करने वाले सरकारी कृत्य पर भी आवाज उठानी चाहिए थी। लेकिन, वे मौन रहे।
माना कि पद्मावती जैसे विषय पर फिल्म बनाने में सही इतिहास के ज्ञान और तत्कालीन परिस्थितियों को समझने में संवेदनशीलता व उत्कृष्ट मूल्यों को दरकिनार कर दिया गया है। लेकिन, मेरे जैसे कितने ही लोग बंबइया फॉर्मूले से बनी फिल्मों को गंभीरता से नहीं लेते क्योंकि उनका उद्देश्य केवल अपना नाम और धन कमाना, औरत के सौंदर्य को प्रसाधनों की तरह बाजार में बेचना होता है। उन्हें बौद्धिक दृष्टि से दिवालिया कहने में कोई ऐतराज नहीं है। ऐसे लोगों से कला जगत की सम्मान रखने की बात सोची भी नहीं जा सकती। शायद समाज के नेताओं ने एक निम्न कोटि की फिल्म को प्रदर्शन और विरोध के माध्यम से कुछ ज्यादा ही महत्व दे दिया है। इस महत्व के योग्य तो यह फिल्म कतई नहीं कही जा सकती।
समाज के विरोध ने फिल्म निर्माता-निर्देशक को लूटने का लाइसेन्स दे दिया है। लेकिन, इन नेताओं को एक बात साफ तौर पर कहना चाहंूगा कि रानी पद्मावती के स्त्रीत्व और त्याग केवल राजस्थान ही नहीं देश के लोगों के लिए भी वन्दनीय है क्योंकि रानी पद्मावती ने आक्रान्ता के समक्ष समर्पण करने के बजाय किले की सभी महिलाओं को साथ लेकर जौहर करना ही श्रेयस्कर समझा। यही वजह है जिसके कारण उस त्याग के सामने सभी नतमस्तक हैं। समुदाय विशेष के नेता इसे अपनी जाति के गौरव तक ही सीमित क्यों रखना चाहते हैं। यदि वे ऐसा करेंगे तो स्त्रियों की अस्मिता और सम्मान को लेकर कई प्रश्न खड़े होंगे जो हम सभी को तकलीफ में डाल देंगे।
हमारे देश के बंबइया फिल्मकारों में ना संवेदनशीलता है और ना ही उच्च मूल्यों के प्रति समर्पण। उन्होंने जो नायक और नायिकायें प्रस्तुत की है, वे अपने बुढ़ापे में विशिष्ट तेल के लाभ गिनाने और विशेष ब्रांड की मशीन के इस्तेमाल से शुद्ध हुए पानी को पीने की एजेन्ट बनी हुई हैं। ये तो जीते-जागते बहुरूपिये है, जो जगह-जगह पर स्वांग करते फिरते है। हमारे समक्ष इससे भी गंभीर प्रश्न लोकतंत्र की मर्यादा को कायम रखने का है। कई राज्यों में स्थानीय मुद्दों को आगे रखकर निजी सेनाएं खड़ी हो गई है, जो चौथ वसूली करती हैं। गरीब जनता को धमकाती है और सत्ता के भूखे जाति-समाज के नेता इन सेनाओं की मदद से विधानसभाओं और संसद में पहुंच जाते है।
बहुत पहले कहा जा चुका है कि हमारा शासन-प्रशासन बेहद लिजलिजा है। सरकारें इन जाति-समाज के नेताओं को बेहद ताकतवर मानती हैं और नेता वोट दिलाने के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। भारतीय जनता पार्टी शासित कई प्रदेशों में ऐसे ही सामाजिक दबाव में आकर फिल्म प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई है। तो फिर, पंजाब में जहां कांग्रेस का शासन है, वो क्यों पीछे रहे? वे भी तो सत्ता में है, वहां भी इस पर रोक लगा दी गई है। ये सम्पूर्ण घटना हमारे सत्तासीन अभिजन के चरित्र को उजागर करती है।
ऐसा लगता है कि देश के नेताओं को लोकतंत्र की मर्यादा, कानून का शासन, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जैसे जीवंत प्रश्नों की शायद कोई परवाह नहीं है। नागरिक समाज को अब ऐसे प्रवृत्तियों को रोकने की कोशिश करनी चाहिए और ये कहने का राजा की परिस्थिति का स्पष्ट चित्रण करने का साहस होना चाहिए। ये जाति और सम्प्रदाय के नेता और उनके अनुयायी समूची व्यवस्था को खोखला कर रहे हैं। मीडिया को भी अपने विचार में पारदर्शिता रखते हुए इन प्रसंगों पर स्वतन्त्र राय रखनी चाहिए। यह देश किसी एक जाति का एक समुदाय की जागीर नहीं है, यह सभी की साझी विरासत है।