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भागीदारी से ही संवरेगा शहरों का भविष्य

लोकतंत्र में केवल मूकदर्शक बनने से काम नहीं चलेगा। सुशासन का सपना मिलकर साकार करना होगा, केवल उसका उपभोगकर्ता बनने से काम नहीं चलेगा। सर्वप्रथम हम नागरिक हैं, अपने समाज का एक अंग। केवल समाज और सामाजिक संस्थाएं ही हैं जो व्यापक जनहित में सरकार की जवाबदेही तय कर सकते हैं और हमारे शहरों को सबके रहने लायक बना सकते हैं।

Dec 23, 2020 / 11:36 pm

Nitin Kumar

pothole

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रोहिणी निलेकणी, लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता और ‘अघ्र्यम’ की संस्थापक-अध्यक्ष

इस साल मैं कई बार बेंगलूरु से काबिनी गई और लौटी। जितनी बार मैं जंगलों या ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा करके आती, अपनी आंखों और मन में वहां की ताजगी समेट लाती। इससे मेरा अपने गृह नगर को देखने का नजरिया बदला। सबसे ज्यादा व्यथित करने वाली बात थी – इस मेट्रो सिटी का नवीनीकरण। ऊपर देखो तो कंक्रीट का खतरा और नीचे निगाह डालो तो मलबे के ढेर। सलेटी रंग के कैनवस वाली मेरे शहर की इस तस्वीर में अगर कोई रंग भरता है तो वे हैं शहर के लोग, जो यातायात के बीच बिना समुचित दृश्यता और साइनबोर्ड के आवागमन कर रहे हैं। हालत यह है कि आगे चल रहे वाहन ही पीछे वालों के लिए नेविगेशन का काम कर रहे हैं, चाहे मूडी ट्रैफिक सिग्नल हो या आगे घुमावदार सर्किल आने वाला हो। लगता है जैसे देश के अन्य शहरों की तरह बेंगलूरु भी अपने निवासियों की परीक्षा ले रहा हो। आधा-अधूरा आधारभूत ढांचा मानो भविष्य बेहतर होने का दिलासा दे रहा हो।
शहर नागरिकों के धैर्य, विश्वास और उम्मीद पर टिका होता है। शहरवासी यहां स्वीकार्यता अनुभव करते हैं तो थकान भी और अंतत: उबाऊपन के शिकार हो जाते हैं। जब मैं घर पहुंचती हूं तो ऐसा लगता है जैसे कि मैं उसी जंगल के शहरी स्वरूप वाली जगह पहुंच गई हूं, जहां से अभी-अभी लौटी हूं। मेरे पड़ोस में पेड़ों का घना झुरमुट है। हालांकि बेंगलूरु शहर पूरा एक जैसा नहीं है और कभी बाग-बगीचों के शहर के रूप में विख्यात इस शहर में मेरे आस-पास के प्राकृतिक दृश्य अपवाद हैं। शहर की अकर्मण्यता जरूर एक अजीबोगरीब सामंजस्य बिठाती है। इससे विशिष्ट वर्ग के ‘कुछ अलग’ होने का आभास खत्म हो जाता है। यातायात का शोरगुल, प्रदूषण और तंग होती निजी जगह खुशफहमी को खत्म करती दिखाई देती है। परन्तु इसी बीच उम्मीद की एक किरण अब भी बाकी है, वह है शहर के भविष्य निर्माण से जुडऩे के अवसर।
राष्ट्रीय स्तर पर इस बात के प्रयास हो रहे हैं कि नागरिकों को शहर से दोबारा जुड़ाव महसूस करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। मौजूदा तकनीकी जगत सभ्यता का स्वरूप निर्धारित करने में सामूहिक भागीदारी के अनुकूल माहौल प्रदान करता है। मेट्रोपॉलिटन इलाकों में बहुत से डिजिटल सिविल सोसाइटी संगठन हैं, जिनके संचालक युवा हैं और डिजिटल उपकरण व माध्यम इस्तेमाल करने की उनकी क्षमता शहरों के भविष्य निर्धारण में सरकारी प्रभुत्व को चुनौती देती नजर आती है। रेजिडेन्ट्स वेलफेयर एसोसिएशन एवं सिविल सोसाइटी संगठन शहरों का मौलिक स्वरूप लौटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
इसके कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं, जैसे युगान्तर ने लॉकडाउन के दौरान झुग्गी-झोंपडि़य़ों की संख्या और आबादी के बारे में पता लगाने के लिए ग्रेटर हैदराबाद म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन में आरटीआइ याचिका दाखिल की। फिर यही जानकारी स्थानीय एनजीओ के साथ साझा की ताकि लक्षित राहत कार्य का बेहतर प्रबंधन किया जा सके। स्थानीय स्तर पर चलाया गया कार्यक्रम हय्या – ‘हैल्थ ओवर स्टिग्मा’ के तहत स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को सुरक्षित, गैर आलोचनात्मक यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने के लिए जवाबदेह ठहराता है, खास तौर पर अविवाहित महिलाओं के लिए। इसी प्रकार बेंगलूरु के ही एक संगठन ‘रीप बेनिफिटÓ ने एक सार्वजनिक नागरिक मंच बनाया है। वॉट्सएप चैटबोट, वॉट्सएप वेब और नागरिक फोरम को इसमें शामिल किया गया है। चैटबोट यूजर्स को सादे स्टेप्स के जरिए विभिन्न नागरिक चुनौतियों के विषय में अवगत करवाता है।
हल्के-फुल्के मनोरंजन के साथ ये स्टेप्स यूजर को जोड़े रखने में कामयाब साबित हुए हैं। मान लीजिए आपको सड़क पर चलते हुए एक गड्ढा दिखा तो आप उसके फोटो खींच कर भेज सकते हैं। अब इससे अगले कदम के बारे में सोचिए, आप इस पर कार्रवाई शुरू करने लगें। यहां तकनीक ने एक अभियान को कार्रवाई तक पहुंचाया और समस्या के दर्शक को उसका समाधानकर्ता बना डाला।
‘सिविस’ संस्था के अनुसार, पर्यावरण विधेयक यदि ज्यादा तकनीकी हो तो सिविल सोसाइटी की भागीदारी से वंचित हो सकता हैै। मार्च 2020 में पर्यावरण मंत्रालय ने कुछ नए नियमों के साथ एक अधिसूचना पत्र का मसौदा प्रस्तुत कर जनता की राय मांगी थी। ‘सिविस’ ने इस मसौदे को जनता के समक्ष सरल रूप में पेश किया। नतीजा यह रहा कि इसमें ज्यादा से ज्यादा लोग प्रत्यक्ष भागीदारी निभा सके और परामर्श दे सके।
हमें उक्त प्रयासों और समाज से जुड़े ऐसे ही अन्य सराहनीय कदमों को प्रोत्साहित करना चाहिए। अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि हम सभी को इन प्रयासों में भागीदारी की अपनी-अपनी राहें तलाशनी चाहिए। लोकतंत्र में केवल मूकदर्शक बनने से काम नहीं चलेगा। सुशासन का सपना मिलकर साकार करना होगा, केवल उसका उपभोगकर्ता बनने से काम नहीं चलेगा। हम चाहे जो कोई भी हों, सर्वप्रथम हम नागरिक हैं, अपने समाज का एक अंग। मुझे पूरा विश्वास है कि केवल समाज और सामाजिक संस्थाएं ही हैं जो व्यापक जनहित में सरकार की जवाबदेही तय कर सकते हैं और हमारे शहरों को सबके रहने लायक बना सकते हैं। सौभाग्य से हम तकनीक के उस दौर मेें हैं, जहां समाज में भागीदारी करना अपेक्षाकृत अधिक आसान हो गया है। यह केवल कम्प्यूटर या मोबाइल पर क्लिक करने की बात नहीं है। मेरा आशय तकनीकी रूप से सक्षम सामाजिक परिवेश से है, जहां समस्या के समाधान की क्षमताएं विभिन्न चरणों में निहित हैं। ये क्षमताएं नागरिक भागीदारी का लोकतांत्रिकीकरण करने में सक्षम हैं। यानी कि शहर के भविष्य निर्माण में लोगों की सहभागिता तय करने के लिए सहायक सिद्ध हो सकती हैं।
इस डिजिटल युग में सिविल सोसाइटी को और अधिक डिजिटल बनाने की जरूरत है, क्योंकि एक संबद्ध व प्रतिबद्ध डिजिटल समाज ही तकनीकी सहयोग को अधिक जवाबदेह बना सकता है। साथ ही ऐसे घटकों से सुरक्षित रख सकता है जो राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ठेस पहुंचाने, व्यक्तिगत व सामूहिक एजेंसी का महत्त्व कम करने वाले हों। इस लिहाज से शहरी गतिविधियां काफी संवेदनशील होती हैं। कोरोना महामारी ने हमें इस बारे में सोचने पर विवश किया है कि भविष्य के शहरों का स्वरूप क्या हो? अब नागरिकों के पास शहरी परिवर्तन में भागीदारी निभाने के अवसर और अधिक बढ़ गए हैं। युवा नेता ऐसे विकल्प तैयार करने में जुटे हैं जो सशक्त नागरिकों के लिए अधिक मानवीय माहौल तैयार करने में सहायक हों। ऐसा माहौल जो गांव की आबो-हवा से निकल कर वापस शहर लौटने पर असहनीय नहीं, बल्कि जीवंत लगे।
(ई-गव फाउंडेशन के कनेक्ट फॉर इम्पैक्ट वेबिनार ‘हमारे शहरों के निर्माण में नागरिकों और समुदायों की भूमिका’ में व्यक्त उद्गारों का रूपांतरण)

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