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‘ऐतिहासिक’ चुनाव

वाकई ये विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक होते नजर आ रहे हैं। ऐतिहासिक इसलिए क्योंकि इतिहास में यह दर्ज होने जा रहा है कि ऐसे प्रतिगामी चुनाव शायद पहली बार हो रहे हैं। ऐसे चुनाव जिसमें राजनीतिक पार्टियों के बीच येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की अंधी होड़ लगी हुई है।

Nov 01, 2023 / 04:58 pm

भुवनेश जैन

भुवनेश जैन
वाकई ये विधानसभा चुनाव ऐतिहासिक होते नजर आ रहे हैं। ऐतिहासिक इसलिए क्योंकि इतिहास में यह दर्ज होने जा रहा है कि ऐसे प्रतिगामी चुनाव शायद पहली बार हो रहे हैं। ऐसे चुनाव जिसमें राजनीतिक पार्टियों के बीच येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की अंधी होड़ लगी हुई है। इस होड़ में राजनीतिक दलों ने दूरदर्शिता और नैतिकता को ताक पर रख दिया है। मतदाताओं को तरह-तरह के लालच दिए जा रहे हैं। दलबदलुओं की पौ-बारह हो गई है। जीवन खपाने वाले कार्यकर्ता को उपेक्षित छोड़ दिया गया है। और सबसे बड़ी बात प्रदेशों की अर्थव्यवस्था को बरबादी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया गया है।

राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मतदाता नवंबर माह में अपने वोट डालेंगे। इससे पहले के एक-दो महीनों में मतदाताओं ने राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली में जितनी गिरावट देखी है, संभवत: इतनी गिरावट पहले कभी नहीं देखी गई। तीनों राज्यों में सत्ताधारी दल सरकारी खजाने लुटाने में लगे हैं और विपक्ष विरोध करने के बजाय तमाशबीन बना हुआ है। तमाशबीन तो क्या, बढ़-चढ़कर ऐसी ही घोषणाएं करने के रास्ते देख रहा है।

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लोकतंत्र को बल तब मिलता है, जब सरकारें दूरगामी परिणामों वाले ऐसे कदम उठाती हैं जो देश-प्रदेश की चहुंमुखी प्रगति का रास्ता खोल दे। इन कदमों में निवेश बढ़ाकर अर्थव्यवस्था सुदृढ़ करना, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की इस तरह मदद करना कि वे गरीबी के चक्रव्यूह से बाहर निकल जाएं, रोजगार के अवसर बढ़ाना, आधारभूत ढांचे को सुदृढ़ करना, शिक्षा व स्वास्थ्य तंत्र को बेहतर बनाना, पर्यावरण में सुधार करना जैसे मुद्दे शामिल हैं। आज तीनों राज्यों में ऐसे मुद्दों की कहीं चर्चा ही नहीं होती। इन चुनावों में तो ये मुद्दे बिलकुल भुलाए जा चुके हैं। सतत विकास (सस्टेनेबल डवलपमेंट) जैसी अवधारणा तो हमारे राजनीतिक दलों की समझ से ही बाहर है।

राजस्थान और मध्यप्रदेश तो ‘बीमारू’ राज्यों की श्रेणी में रहे हैं। अर्थव्यवस्था की मजबूती सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन इस पर विचार करने की चिंता किसी को नहीं है। बस जैसे-तैसे चुनाव जीतना है। सरकारी खजाने में से चुनाव के दौरान मतदाताओं को ललचाने वाली घोषणाएं करो। इनके बूते पर चुनाव जीतो और फिर पांच बरस प्रदेश और जनता को उसके हाल पर छोड़ दो। इन घोषणाओं ने प्रदेशों की अर्थव्यवस्था तहस-नहस कर दी। कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। अंग्रेजी स्कूलों की घोषणाएं हो गई, पर पढ़ाने वाले शिक्षक ही नहीं हैं। स्वास्थ्य बीमे के नाम पर बीमा कंपनियों, निजी अस्पतालों और नेताओं की तिकड़ी ने जनता के धन में सेंधमारी का नया रास्ता खोल दिया।
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युवा पीढ़ी निकालेगी रास्ता
कहीं मुफ्त साइकिलें, स्कूटी, लैपटॉप बंट रहे हैं, कहीं सिलेंडर और धान पर सब्सिडी, मुफ्त बिजली, बेरोजगारी भत्ता तो कहीं मोबाइल फोन तो कहीं बहन अचानक लाडली हो गई। बस यही राजनीतिक दलों की विकास की अवधारणा रह गई। फिर चुनाव जीतने के लिए सारी नैतिकता ताक पर। अपराधियों और माफिया को टिकट दिए जा रहे हैं। दलबदलुओं का स्वागत किया जा रहा है। जाति के आधार पर जीत-हार की गणित लगाई जा रही है।

परीक्षाओं और भर्ती में होने वाली धांधलियों से इन तीनों राज्यों के युवा बेहद निराश और दुखी हैं। पर सरकारों के लिए इस व्यवस्था को सुधारना कोई मुद्दा ही नहीं है। राज्य सेवा आयोेग प्रदेशों की युवा पीढ़ी के भविष्य से खिलवाड़ करने में लगे हैं। करोड़ों-अरबों की कमाई के अड्डे बन गए हैं। जितने पर्चे लीक होंगे, उतनी ज्यादा कमाई।

यह युवा पीढ़ी अपने राज्यों में होने वाली इन कारगुजारियों, अदूरदर्शितापूर्ण कदमों और नेताओं की रस्सा-कशी को ध्यान से देख रही है। उसे अब जाति या क्षेत्रीयता के नाम पर ज्यादा दिन बहकाया नहीं जा सकेगा। सत्तालोलुप राजनेताओं की भीड़ को अंगूठा दिखाकर सच्चे जनप्रतिनिधि चुनने का कोई न कोई रास्ता वह इन चुनावों में निकाल लेगी। उम्मीद तो यही की जानी चाहिए।

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