इसे विचारधारा का भटकाव माना जाए या समन्वय की कमी? शिवसेना का उदाहरण सामने है। दशकों तक कांग्रेस विरोध की राजनीति करती रही ये पार्टी आज सत्ता के लिए कांग्रेस का सहारा ले रही है। तो किसानों के मुद्दे पर शिरोमणि अकाली दल भाजपा को घेरती नजर आ रही है। सवाल ये नहीं कि केंद्र में सरकार चलाने के लिए भाजपा को सहयोगियों की जरूरत है अथवा नहीं।
सवाल ये है कि राजनीति में गठबंधन के मायने क्या रह गए हैं? बात सिर्फ अकाली दल, शिवसेना अथवा एनडीए की नहीं है। बिहार में विधानसभा चुनाव की डुगडुगी बज चुकी है, लेकिन न एनडीए अभी सीटों पर सहमति बना पाया है और न विपक्षी महागठबंधन। एक-दूसरे पर दबाव बनाकर अधिक सीटें हथियाना सभी दलों की प्राथमिकता बन चुका है। नामांकन पत्र भरने का काम शुरू होने वाला है, लेकिन अभी तक ये तय नहीं है कि कौन, किसके साथ मिलकर चुनाव लड़ेगा।
भारतीय राजनीति की यह त्रासदी बनती जा रही है कि यहां गठबंधन अपना स्थायित्व खोते जा रहे हैं। चुनावी संघर्ष सत्ता हथियाने तक सीमित होता जा रहा है। चुनाव के पहले समीकरण कुछ और होते हैं, लेकिन नतीजों के बाद समीकरण बदल जाते है। शिवसेना महाराष्ट्र में चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ी और सरकार कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर बनाई। हरियाणा की कहानी भी कुछ मिलती-जुलती ही थी। देश में आज एनडीए और यूपीए के रूप में दो बड़े गठबंधन हंै। एक का नेतृत्व भाजपा कर रही है, तो दूसरे का कांग्रेस, लेकिन दोनों गठबंधनों में अनेक समानताएं हैं। दोनों गठबंधनों की न कोई समन्वय समिति है और न ही इनकी नियमित बैठकें होती हैं। जनता दल(यू) एनडीए में शामिल है, लेकिन उसने केंद्र सरकार में अपना कोई मंत्री नही बनाया।
ऐसे गठबंधनों का मतलब क्या जिनके नेता एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते। अटल बिहारी वाजपेयी के समय भी एनडीए था, शायद आज से बेहतर स्थिति में। अनबन होती थी, लेकिन ऐसी नहीं। जब देश या राज्यों में एक दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होते, गठबंधन तभी बनता है। ऐसे में राजनीतिक दलों को इसका महत्त्व समझना चाहिए। राजनीति में सत्ता का महत्त्व होता है, लेकिन सिद्धांतों और विचारधाराओं का भी महत्त्व होता है।