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Patrika Opinion: संरक्षण के लिए लेनी होगी आदिवासियों की मदद

जैविक विविधता पर कन्वेंशन (सीबीडी), जिसे अनौपचारिक रूप से जैव विविधता कन्वेंशन के रूप में जाना जाता है, एक बहुपक्षीय संधि है। यह संयुक्त राष्ट्र की एक ऐसी पहल है, जिसके जरिए दुनियाभर में पाए जाने वाली पेड़-पौधों और जीवों की प्रजातियों की चिंता की गई है। असल में यह चिंता इसलिए भी जगी कि चाहे जीव-जंतु हों या पेड़-पौधे, उन पर खतरा बढ़ता जा रहा है।

जयपुरMay 22, 2024 / 04:24 pm

विकास माथुर

आज दुनिया में कितनी ही तरह की प्रजातियां हैं। इसकी गिनती अभी तक संभव नहीं हुई। यही मानकर चला गया है कि हम मात्र चार प्रतिशत प्रजातियों को जानते हैं, जबकि 96 प्रतिशत के बारे में हमारे पास बहुत ज्यादा आंकड़े नहीं हैं। यही हालात रहे तो 25 से 50 प्रतिशत प्रजातियां, चाहे वह पेड़-पौधे की हों या फिर अन्य जीव-जंतुओं की हों, इस शताब्दी के अंत तक खत्म हो जाएंगी।
आइसीयूएन की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनियाभर में 121 पौधों की प्रजातियां व 737 जीवों की प्रजातियां पहले ही खत्म हो चुकी हैं। इसके अलावा आने वाले समय में जो खतरा बताया गया है, 2201 वन्यजीवों की व 1827 प्रजातियां पौधों की तेजी से विलुप्त होने की कगार पर हैं। ये एक बहुत बड़ा आंकड़ा है। यह इस बात की ओर इंगित कर रहा है कि किस तरह से मनुष्य की गतिविधियों ने हमारे बीच में से महत्त्वपूर्ण प्रजातियों को खत्म कर दिया है। हर देश ने अपने बायोडायवर्सिटी पार्क खड़े किए हैं। इनका उद्देश्य यह है कि विभिन्न प्रजातियों को संरक्षण मिले। बावजूद इसके भारत में कई प्रजातियां खत्म हो रही हैं।
खेती-बाड़ी में ही देख लीजिए कि 90 प्रतिशत फसलों की जैव विविधता खत्म हो चुकी है। यह सब कुछ पिछले सौ सालों में ही हुआ। दुनिया में 47 प्रतिशत चिडिय़ों की प्रजातियां सीधे प्रभावित हुई हैं। समुद्र में ही डार्क जोन बन गए हैं। इसका मतलब वहां ऑक्सीजन नहीं बची। जानवरों की 870 प्रजातियां प्रभावित हो चुकी हैं। हम इनको बचाने के क्या प्रयत्न कर रहे हैं? दुनियाभर में यह बहस चल रही है कि ग्लोबल वार्मिंग या क्लाइमेट चेंज एक तरफ मानव जीवन के लिए संकट बढ़ा रहा है, दूसरी तरफ इसका सीधा दुष्प्रभाव उन प्रजातियों में पड़ रहा है जो कि अतिसंवेनदशील हैं। ये सब प्रजातियां वन्यजीवों की हैं। आबादी लगातार बढ़ती चली गई। साथ में उद्योगों ने बड़ी जगह बनाई। वहीं वनों की कटाई इस हद तक हुई कि आज 31 प्रतिशत वन बचे हैं। क्लाइमेट चेंज के साथ खेती-बाड़ी में जो पेस्टीसाइड का उपयोग किया, वह हमारे लिए सबसे घातक सिद्ध हुआ।
हमें उन परंपराओं की तरफ या उन जनजातियों की तरफ जाना होगा जो कि दुनिया की प्रजातियों को बचाने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती रही हैं। ये वे समुदाय हैं, जो दूरदराज और हर देश के हर कोने में इंडीजीनस यानी स्थानीय प्रजातियों के रूप में जाने जाते हैं। ये वे समुदाय हैं जो हमेशा से वनों और प्रकृति के साथ रहे। इन्हीं की वजह से कई प्रजातियां हमसे दूर नहीं जा पाईं। अपने देश में भोटिया जनजाति जैसी अनेक आदिवासी जातियां हैं, इनकी गतिविधियां पेड़-पौधों से इस तरह से जुड़ी रहती हैं कि वे इनका उपयोग भी करती हैं और साथ में ये उन्हें बचाने में भी अहम भूमिका निभाती हैं।
—अनिल प्रकाश जोशी

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