केंद्र में भाजपा सरकार आने के बाद आमजन को लगा था कि अब शायद कुछ ऐसा हो जो पहले नहीं हुआ। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। सब जानते हैं कि कालेधन की गंगा कहां से निकलती है। रोजाना लाखों की रिश्वत लेते अधिकारियों के पकड़े जाने की खबरें सार्वजनिक होती हैं। बड़े-बड़े बैंकों और विदेशों से होने वाली अरबों-खरबों की खरीद में कमीशन का खेल भी किसी से छिपा नहीं। बावजूद इसके कितने नेता-अधिकारियों के नाम सामने आए? चंद अपवादों को छोड़ दिया जाए तो हालात बदलते दिखते नहीं। कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि काली कमाई करने वालों पर शिकंजा कसना आसान नहीं। तो फिर कैसे यकीन हो कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन कभी वापस आ भी पाएगा?
सवाल उठना स्वाभाविक है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले काला धन वापस लाने का वादा करने वाली सरकार कितना सफल हो पाई है? सफल नहीं हो पा रही तो इसके पीछे कारण क्या हैं? भ्रष्ट तरीकों से कमाई करने वालों ने कानूनी अड़चनों से बचने के लिए अनेक रास्ते निकाल रखे हैं। गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) के माध्यम से काले धन को सफेद करने की बात भी सामने आई है। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि इन सभी तथ्यों से जनता को अवगत कराया जाए। सरकार को आगे आकर बताना चाहिए कि बीते सात सालों में इस मुद्दे पर उसने क्या कदम उठाए और इसमें कितनी सफलता मिली। विदेशी बैंकों में जमा काले धन के खाताधारकों की सूची मिलने की खबर मात्र को बड़ी सफलता के रूप में नहीं देखा जा सकता। सफलता तभी मानी जाएगी जब दो नंबर का पैसा फिर सरकारी खाते में वापस आए।