क्या है किसी नेता या सरकार के पास इसका जवाब? पूरा शहर घंटों सडक़ पर ‘बंधक’ बना रहा। दो किलोमीटर तय करने में एक घंटा लग रहा था। स्कूली-कॉलेज छात्र या स्टेशन बस अड्डों को जाते यात्री, पर्यटक हो या मरीज, अधिकारी हो या कर्मचारी सब क्या लाचार।
क्या यह राजनीतिक अतिवाद नहीं है? क्या शहर इन राजनेताओं की मर्जी से चलेगा? कोई इनके सम्मेलनों को ध्यान में रखकर बीमार पड़ेगा, जीयेगा, मरेगा? जब से चुनाव की सरगर्मी शुरू हुई कभी प्रधानमंत्री, कभी कांग्रेस अध्यक्ष, भाजपा अध्यक्ष ये नेता वो नेता। शहर नहीं हो गया कोई खेल का मैदान हो गया। जब न्यायालय आदेश दे चुका है कि शहर के बाहर कलक्टर जनसभाओं-सम्मेलनों के स्थान तय कर दें फिर क्यों नहीं उनके कानों में जूं रेंग रही। क्या इतनी ही अहमियत है न्यायिक आदेशों की?
रामगढ़, मास्टर प्लान, सडक़ों, गंदगी, यातायात को लेकर दिए आदेशों का हश्र सबके सामने हैं। जमीन खोखली हो रही है, रफ्तार से सडक़ें लाल हो रही है, लेकिन किसे फ्रिक है? राजनेताओं की आंखों पर तो चुनावी चश्मा लग गया है। हर आदमी उन्हें इवीएम का बटन दिखने लगा है, अपने पक्ष में जितने ज्यादा दबा सकते हो दबा लो। इस ‘अतिवाद’ को हमें ही नेस्तनाबूद करना होगा। क्योंकि इसको खड़ा भी जनता ने ही किया है, अपना कीमती वोट देकर। चाहे पार्टी कोई भी हो। सरकार तो हम ही चुनते हैं। फिर मार क्यों सहते हैं? जनता को सडक़, पानी, बिजली, कानून पर पूरा हक है। फिर क्यों सरेआम बंधक बन कर रह रही है? क्यों चंद लोगों के हितों के लिए ‘जुल्म’ सह रही है? शहर को आए दिन के ‘राजनीतिक ड्रामों’ से निजात दिलाने के लिए जनता को ही दबाव बनाना पड़ेगा।
न्यायपालिका से भी गुजारिश है कि इन मुश्किलों से निजात दिलाए। आखिर इन सबसे वह स्वयं उनके कर्मचारी, परिजन भी हलकान होते ही है। मंगलवार को ही भवानी सिंह रोड पर कम से कम तीन एंबुलेंस फंसी दिखी। यातायात पुलिस भी लाचार थी। गंभीर मरीजों के परिजनों का दर्द तो शायद भगवान ही समझ सकता है। यह तो निश्चित है दुआएं तो नहीं निकल रही होंगी। आगामी छह माह शहर को ही नहीं पूरे राज्य को यही नरक भुगतना पड़ सकता है।
राजनेता और पार्टियां तो अपना ‘उल्लू’ सीधा कर भूल जाएंगी, जनता ही अपने कर्मों पर रोती नजर आएगी। अब अपने चैन को राजनीति की भेंट नहीं चढऩे देंगे। राजनेता भी समझ लें, लोग जागरूक हो रहे हैं। अब लॉलीपॉप के झांसे में नहीं आने वाले। सरकारें आम जन की अभिभावक होती है। ज्यादा दबाव किसी भी भोले-भाले को विद्रोही बना देती है।
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