देश में औसत 60 से 70 फीसदी तक वोटिंग होती है। लेकिन विरोधाभासी हालात हैं कि अब गोली नहीं चलती लेकिन सियासी बोली ऐसी बेलगाम है कि कइयों को जख्मी कर देती है। उत्तरप्रदेश के चुनावी दौर में ऐसी भाषा का उपयोग हो रहा है जो कि भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर घाव के समान है। कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है।
पहले किसी ने दो शब्द कहे तो जवाब में दूसरा चार शब्द तो कहेगा ही। भारतीय राजनीति में एक ऐसा भी दौर था जब जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजनारायण, जेपी, अटलबिहारी वाजपेयी जैसे संयमित भाषा बोलने वाले नेता थे।
विरोधी दल से चाहे कितना भी मतभेद क्यों न हो, लेकिन भाषा को नियंत्रित और मर्यादित रखते थे। हैरत की बात है कि विकास के नाम पर चुनावी सफर शुरू करने वाले नेताओं के लिए सड़क, पानी, बिजली, सेहत और शिक्षा जैसे मुद्दे बीच में ही पाश्र्व में चले जाते हैं।
एक-दूसरे पर छींटाकसी और आरोप-प्रत्यारोपों की जुबानी जंग शुरू हो जाती है। उत्तरप्रदेश चुनावों में इस प्रकार की बयानबाजी अपेक्षित थी। लेकिन माना जा रहा था कि प्रमुख राजनीतिक दलों के दूसरे अथवा तीसरे पायदान वाले नेताओं की ओर से इस प्रकार के बयान सामने आएंगे। लेकिन लगभग सभी बड़ी पार्टियों के शीर्ष नेता ही स्तरहीन बयानों पर आमादा हैं।
विकास के मुद्दे पर नेताओं को तथ्य आधारित बयान देने होते हैं। जनता को अपने कार्यों से तुष्ट करना होता है। इसलिए नेता विकास के मुद्दे को केवल नाममात्र के लिए बोलते हैं। उनके भाषणों में मसालेदार आरोप-प्रत्यारोप ही ज्यादा होते हैं।
दरअसल, हम इसे भारतीय राजनीति का ट्रंपवाद कह सकते हैं। जिस प्रकार अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप को पता होता है कि उनके बयानों की आलोचना होगी, लेकिन साथ ही वे जानते हैं कि उनके बयानों से उनके वोटर अथवा समर्थक खुश भी होंगे।
ऐसे में अपने वोटरों को खुश करने के लिए भी इस प्रकार के बयान कहे जाते हैं। अतिवादी बयानों से समाज में ध्रुवीकरण भी होता है जो कि सियासी हार-जीत के लिए काफी अहम होता है। जीत हासिल करने के लिए बयानों की नैया में सवार होना नेताओं के लिए तो फायदेमंद साबित होता है लेकिन आम जनता तो भंवर में फंस जाती है।