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ओपिनियन

कोहनी पर गुड़

जिसे देखो वही हाथ में गुड़ की लपटी लिए फिर रहा है। जहां जाता है वहीं कोहनी पर चिपका देता है।

Jan 16, 2015 / 12:12 pm

Super Admin

अच्छा एक काम कीजिए। अगर यह काम आपने कर दिखाया तो हम आपको इस देश के “वजीरे आला” का खिताब बक्श देंगे। करना यह है कि हम आपकी कोहनी पर गुड़ लगा देते हैं। जरा उस गुड़ को चाट कर दिखा दीजिए। कोशिश करने में क्या हर्ज है। अगर यह कर दिखाया तो हम आपको “करिश्माई व्यक्तित्व” मान लेंगे।

अब आप पूछिए कि “कोहनी पर गुड़ लगा कर चाटने” का खेल हमारे दिमाग में कैसे आया? दरअसल गुड़ हमारी और आपकी कोहनी पर लगा हुआ है और इस वादे रूपी गुड़ को चिपकाने वाले हैं नेता। आज जिसे देखो वही हाथ में गुड़ की लपटी लिए फिर रहा है। जहां जाता है वहीं जनता की कोहनी पर चिपका देता है। बेचारी जनता को लगता है कि गुड़ उसके पास ही तो है।

उसकी गंध भी नथुनों में आती रहती है पर वह गुड़ का स्वाद नहीं ले पाता। आपकी कोहनी पर लगे गुड़ को नेता, उसकी औलादें, उनके भतीजे, उनके जंवाई, भाई और चमचे चाट जाते हैं। नेताओं के चमचे-चमचियां जब गुड़ चाटते हैं तो त्वचा में हल्की-सी फुरफुरी होती है और जनता इसी फुरफुरी के नशे में रहती है।

पंडितजी का समाजवादी गुड़, इंदिरा का गरीबी हटाओ गुड़, मोरारजी भाई का नशामुक्त गुड़, राजीव गांधी का कम्प्यूटरीकृत गुड़, नरसिंहराव का खुली अर्थव्यवस्था वाला गुड़, अटल जी का “फीलगुड” गुड़, मौनी बाबा “द्वितीय” मनमोहन सिंह का उदारीकरण गुड़ आज तक जनता की कुहनी पर लिथड़ा हुआ है।

बीच-बीच में वीपी सिंह ने “मंडल” गुड़ और आडवाणी ने कमंडल गुड़ भी लगाया था। अब नरेन्द्र भाई मोदी “विकास” का गुड़ और राहुल गांधी सेक्यूलर गुड़ की लपटी लिए हाजिर हैं। अब करते रहो भांति-भांति के इन गुड़ों को चाटने का प्रयत्न। यह ऎसे ही है जैसे गधा सवार एक डंडे पर जलेबी बांध कर गधे के मुंह के सामने लटका देता है।

गधा जलेबी खाने के लालच में चलता रहता है पर कभी खा नहीं पाता। उसके आगे बढ़ने के साथ जलेबी भी आगे बढ़ जाती है। हमारी नजर में तो यही इस देश के लोकतंत्र का सत्य है। हो सकता है आपका सत्य हमारे सत्य से अलग हो। अगर ऎसा है तो आपको मुबारकबाद।
राही

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