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राजनेताओं की भाषा

अमर्यादित भाषणों से देश के युवा का गुजारा नहीं होने वाला है। उसे तमाशा दिखाने वालों की नहीं, देश के लिए कुछ कर गुजरने वाले नेताओं की दरकार है।

जयपुरJan 15, 2019 / 06:57 pm

dilip chaturvedi

Language of politicians

Language of politicians

राजनेताओं का मर्यादित आचरण और भाषा लोकतंत्र के अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक माना जाता रहा है। मगर इन दिनों जो दृश्य सामने आ रहे हैं, उससे लगता है कि राजनेता अपने बयानों में भाषा की मर्यादा को लांघने में एक-दूसरे से होड़ कर रहे हैं। व्यवहार और भाषा में शालीनता को तिलांजलि देने में नेताओं को अब एक क्षण नहीं लगता। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह मर्यादा लांघने वाला सत्ता पक्ष से है या विपक्ष से। पिछली सदी के अंत तक देश में अगर किसी नेता की जुबान फिसलती भी थी, तो उसमें भी शालीनता बरकरार रहती थी। वे एक-दूसरे का सम्मान रखना जानते थे। विरोधी के साथ तीखे वाक् युद्ध में भी एक गरिमा बनाए रखी जाती थी। इसी शालीनता और मर्यादा वाले आचरण से ही सदियों के सामंती पाश और गुलामी से बाहर निकल कर हम लोक के हाथों में संवैधानिक सार्वभौम सत्ता को स्थायित्व दे पाए। हम ने आपसी कषाय से ऊपर उठ कर लोकतांत्रिक संस्थाएं बनाईं। निरक्षरता के विशाल रेगिस्तान के बावजूद हमारी संस्कृति ने हमें यह मर्यादा सिखाई कि लोकतंत्र में अपनी जुबान पर कैसे नियंत्रण रखा जाए। मगर इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंत तक पहुंचते लगता है सारा परिदृश्य बदल गया है।

आज का राजनेता अपने आप को सर्वज्ञ मान बैठा है और अपने से विपरीत मत पर हमला करते हुए वह किसी भी निचले स्तर पर चले जाने से परहेज नहीं करता। राजनीति में ओछी भाषा पहले थी, तो वह बहुत निचले पायदान वाले राजनेताओं या कार्यकर्ताओं तक ही सीमित थी। किसी भी दल के किसी बड़े नेता के मुंह से वैसी भाषा किसी सूरत में नहीं निकलती थी। इसी से हमारा लोकतंत्र पनपा और दुनिया में हमने इसी का गर्व किया कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। अब सत्ता के लिए संघर्ष जिस तरह के गला काट प्रतिस्पर्धा के दौर में पहुंच गया है, उसमें व्यवहार और भाषा की सारी गरिमा और नियंत्रण तिरोहित हो चुके हैं। स्वस्थ आलोचना और गाली-गलौज में अंतर कुछ अपवादों को छोड़ कर राजनेता लगभग भूल चुके हैं। यह दर्शाता है कि हमारे राजनेताओं की भाषा की समझ एकदम सतही हो गई है।

सोशल मीडिया के इस दौर में झूठ को तेजी से फैलाने के लिए ऐसी हल्की भाषा का ही सहारा लिया जाता है जो कई बार अश्लीलता की जद में चली जाती है। ऐसा घोर राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के चलते होता है। राजनेताओं के ऐसे व्यवहार का बुरा सामाजिक असर होता है जो राजनीति में केवल कड़वाहट घोलता है। इससे सामाजिक ताना-बाना चिथड़े-चिथड़े हो जाता है और एक स्वस्थ लोकतंत्र की जगह भीड़तंत्र खड़ा होने लगता है, जो आम आदमी को असुरक्षित बनाता है। बेचारगी और लाचारगी का आलम बनता है। भाषा की फूहड़ता कभी कुछ एक नेताओं की पहचान हुआ करती थी, परंतु अब तो सभी शीर्ष नेता भी वैसी भाषा बोलने लगे हैं। उनके भाषण और उनके बयान तमाशाई शैली में होने लगे हैं। यह इतना अधिक हो गया है कि अब उनकी मनोरंजन की क्षमता भी खत्म होती जा रही है और लोग उनसे ऊबते जा रहे हैं। मगर चुनावी मौसम में इसके रुकने के कोई आसार भी नजर नहीं आते।

अगले कुछ महीनों में होने वाले लोकसभा चुनावों में कैसे एक-दूसरे को नीचा दिखाया जाए और कैसे मतदाता की नजरों से गिराया जाए, यही अरमान वे संजोये हुए हैं। सत्ता के अपने तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्य को पाने के लिए राजनेताओं का ऐसा भाषाई आचरण लोकतंत्र की गरिमा को गिराने वाला ही कहा जाएगा। आज चहुंओर लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्षरण भी अमर्यादित राजनेताओं, जो मीडिया में भी छाए रहते हैं, की ही देन है। देश के युवा को आज हुनर चाहिए, जिससे वह अपने लिए रोजगार की नई संभावनाएं ही नहीं तलाश सकें, बल्कि वह दूसरों को रोजगार देने लायक भी बन सकें। अमर्यादित भाषणों से न तो उसका गुजारा ही होने वाला है, न ही उसे कुछ और ही हासिल होने वाला है। उसे तमाशा दिखाने वालों की नहीं, बल्कि देश के भविष्य के लिए ठोस सोच रखने वाले, नीतियां बनाने वाले और उन्हें अमल में लाना सुनिश्चित कर कुछ कर गुजरने वाले नेताओं की दरकार है। क्या हमारे नेता वक्त की नब्ज को समझेंगे? यह सौ टके का सवाल है।

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