चिंता की बात यह भी है कि इसमें सुधार की बजाय स्थिति और खराब ही होती जा रही है। वर्ष 2019 में कुल पंजीकृत मौतों में सिर्फ 20.7 फीसदी मौतों की वजह प्रमाणित की गई, 2018 में 21.1 फीसदी प्रमाणित हुईं तो वर्ष 2017 में यह आंकड़ा 22 फीसदी था। इन आंकड़ों को पहले कभी इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया। यदि लिया गया होता तो कोरोना महामारी से होने वाली मौतों की संख्या को लेकर किसी को सवाल उठाने का मौका नहीं मिलता। हमारे लचर तंत्र की वजह से न सिर्फ देश में सरकार विरोधी दलों को, बल्कि विदेशी एंजेंसियों को भी मौका मिल गया है। सरकार पर कोरोना से मौतों को छिपाने के आरोप लग रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने वादा किया है कि कोरोना से हुई सभी मौतों को प्रमाणित किया जाएगा, पर क्या कोई सरकार बिना पुख्ता प्रणाली के ऐसा सुनिश्चित कर सकती है? कोरोना के मामलों में तो यह और भी मुश्किल हो जाता है। क्योंकि, अब तक सिर्फ अस्पतालों में होने वाली मौतों को ही प्रमाणित करने की व्यवस्था थी। बेड, वेंटिलेटर और ऑक्सीजन की कमी के कारण बड़ी संख्या में मौतें अस्पताल के बाहर भी हुई हैं। अन्य बीमारियों से ग्रसित लोगों की मौत की वजह कोरोना मानने में भी हिचक रही। चूंकि बीमारियों से मौत पर मुआवजे का प्रावधान नहीं है, इसलिए परिजनों ने मौत की वजह प्रमाणित कराना भी जरूरी नहीं समझा।
सरकार ने शीर्ष अदालत को बताया है कि कोरोना से मौतों पर मुआवजा देने की आर्थिक स्थिति में वह इसलिए नहीं है क्योंकि कोरोना पीडि़तों के लिए राहत योजनाओं पर खर्च करना है। लेकिन सरकार को यह तो समझना होगा कि कोरोना से मौतों को यदि ठीक से प्रमाणित नहीं किया जा सका तो संबंधित राहत भी लाभार्थियों तक नहीं पहुंच सकेगी। इसलिए सबसे पहले तंत्र की गड़बडिय़ों को सुधारना जरूरी है। हर मौत पंजीकृत करने के साथ ही उसका कारण प्रमाणित किया जाना भी अनिवार्य होना चाहिए।