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Patrika Opinion: अमरीका में नस्लभेद की चिंताजनक तस्वीर

ऐसा लगने लगा है कि नस्लभेद अमरीका में रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन कर रह गया है। खास तौर से पिछले एक दशक के दौरान नस्लभेद की हिंसक घटनाएं यह भी बताती हैं कि अमरीका में उग्र श्वेत राष्ट्रवाद का प्रसार खूब हो रहा है।

May 17, 2022 / 09:46 pm

Patrika Desk

प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

अमरीका में नस्लभेद की भयावह तस्वीर फिर सामने आई है जब सैन्य वर्दी पहने एक श्वेत किशोर ने न्यूयॉर्क के बफेलो सुपर मार्केट में अंधाधुंध गोलियां बरसा दीं जिसमें दस जने मारे गए। मरने वालों में अधिकांश अश्वेत हैं। इस घटनाक्रम को अंजाम देने वाले किशोर ने इस दौरान न केवल नस्लीय अपशब्दों का इस्तेमाल किया बल्कि हमले को सोशल मीडिया पर ऑनलाइन स्ट्रीम भी किया। ऐसा लगने लगा है कि नस्लभेद अमरीका में रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन कर रह गया है। खास तौर से पिछले एक दशक के दौरान नस्लभेद की हिंसक घटनाएं यह भी बताती हैं कि अमरीका में उग्र श्वेत राष्ट्रवाद का प्रसार खूब हो रहा है।
भले ही नस्लभेद अमरीका में हर बार चुनावी मुद्दा बनता आया हो लेकिन इसे रोकने के प्रयास तेज हुए हों, ऐसा नहीं लगता। इसकी सबसे बड़ी वजह अश्वेतों को लेकर अमरीकियों में उस अज्ञात किस्म का भय ही माना जाना चाहिए जिसमें वहां की श्वेत आबादी अपनी हर समस्या के लिए अश्वेतों को जिम्मेदार मानने लगी है। यही वजह है कि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान मूल अमरीकियों को अपने खेमे में बनाए रखने का जतन सब अपने तरीके से करते हैं। ऐसे जतन में बड़ा मुद्दा आर्थिक असमानता का और इसकी वजह अश्वेत आबादी को मानना भी रहता है। वस्तुत: खुद अमरीका ने ही ऐसी रक्तरंजित करतूतों को प्रोत्साहित किया है। वहां के हुक्मरान भी ऐसी घटनाओं को सिरफिरे की करतूत मानकर समस्या पर पर्दा डालने में जुट जाते हैं। राष्ट्रपति जो बाइडन ने हमले की निंदा करने के बाद अब बफेलो सुपर मार्केट जाने का कार्यक्रम भी तय किया है। इस प्रकरण को लेकर वहां का कानून अपना काम कर रहा है। लेकिन सीधे तौर पर यह आतंकी कार्रवाई ही है जो नस्लभेद का चरम दर्शाती है। अमरीका की केन्द्रीय जांच एजेंसी फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन (एफबीआइ) की एक रिपोर्ट में यह चिंताजनक तस्वीर सामने आई है जिसमें कहा गया है कि वर्ष 2020 में अमरीका में अश्वेतों और एशियाई लोगों के खिलाफ घृणा अपराध की संख्या में 40 से 70 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
हैरत की बात यह भी है कि भारत समेत दुनिया के तमाम दूसरे देशों में इस तरह की छोटी-बड़ी घटनाओं पर अमरीका खुद मानवाधिकारों की दुहाई देने व नसीहत देने में जुट जाता है। दूसरे देशों के लोकतंत्र और मानव अधिकारों की समीक्षा करने से पहले अमरीका को अपने घर में झांकना चाहिए। जरूरत इस बात की भी है कि न केवल अमरीका बल्कि दुनिया के तमाम दूसरे देश साझा प्रयास कर नस्लभेद से मुकाबले की रणनीति बनाएं।

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