यह विडंबना है कि राजस्थानी को भाषा के रूप में राजस्थान में भी मान्यता नहीं है, वहीं अमरीकन लाइब्रेरी इस भाषा को इतना सम्मान देती है। यह तो तब है जब राजस्थान की विधानसभा ने 2009 में ही राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शािमल करने का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को भिजवा दिया था।
वर्ष 2001 की जनगणना में राजस्थानी को मायड़ भाषा में अंकित करने की अपील भी सत्ता व विपक्ष में बैठे नेताओं ने नहीं की थी। राजस्थानी आंदोलन के लेखक और साहित्यकर्मियों की इस दिशा में चुप्पी भी आश्चर्यजनक है।
सवाल यह है कि राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता के लिए कब तक प्रतीक्षा की जाए? राजस्थानी को समृद्ध बनाने वाले रचनाकारों में कई आज भी संघर्षशील हैं लेकिन इसकी संवैधानिक मान्यता के सपने को चूर-चूर होते देखने को मजबूर है।
यह सही है कि राजस्थानी का निर्माण छह प्रमुख बोलियों से हुआ है। इनमें मारवाड़ी, मेवाड़ी, ढूंढाड़ी शेखावाटी, हाडौती व बागड़ी शामिल है। राजस्थानी इन भाषाओं में वार्तालाप करने वाले 94 फीसदी लोगों को अपने में समाहित ही नहीं करती बल्कि एक स्वतंत्र भाषा का निर्माण कर लेती है।
भाषा वैज्ञानिकों का भी मानना है कि राजस्थानी, हिन्दी से नहीं निकली बल्कि एक स्वतंत्र अस्तित्व वाली भाषा है। भाषायी सर्वे में भी कहा गया है कि राजस्थान निर्माण के बाद इसका नामकरण राजस्थानी कर दिया गया।
अब तक भले ही इस दिशा में काम को गति नहीं मिली। लेकिन अभी राज्य विधानसभा व संसद के सत्र चल रहे हैं। केन्द्र पर राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने को दबाव बनाने का यह सही वक्त है।