ओपिनियन

प्रवाह… झूठ का पुलिंदा-4

होने को रामगढ़ बांध व अन्य जलाशयों को लेकर भी राजस्थान उच्च न्यायालय कई बार कड़े आदेश दे चुका है, बड़े-बड़े अफसरों को अदालतों में बुलाकर फटकार लगाई जा चुकी है, लेकिन अफसरशाही पर चिकने घड़े की तरह असर ही नहीं होता।

Dec 05, 2020 / 07:50 am

भुवनेश जैन

– भुवनेश जैन
भारत ही नहीं, पूरे विश्व में जल को अमूल्य प्राकृतिक सम्पदा माना गया है। इसीलिए संरक्षण को हर स्तर पर बहुत महत्व दिया गया है। जल स्रोतों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कठोर कानून बनाए गए हैं। भारत में भी उच्चतम न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालयों तक ने जल स्रोतों पर अतिक्रमण करने, बहाव रोकने या अन्य तरीके से नुकसान पहुंचाने पर अनेक बार संज्ञान लेते हुए कड़े आदेश पारित किए हैं।
होने को रामगढ़ बांध व अन्य जलाशयों को लेकर भी राजस्थान उच्च न्यायालय कई बार कड़े आदेश दे चुका है, बड़े-बड़े अफसरों को अदालतों में बुलाकर फटकार लगाई जा चुकी है, लेकिन अफसरशाही पर चिकने घड़े की तरह असर ही नहीं होता। राजस्थान उच्च न्यायालय के आदेशों को अनेदखा करने की राजस्थान के शीर्ष अफसरों की आदत पड़ चुकी है। इसमें वे शायद अपनी शान समझते हैं।
अब्दुल रहमान मामले में तो राजस्थान उच्च न्यायालय ने स्पष्ट आदेश दिया था कि नदी, नालों व तालाबों के बहाव क्षेत्र के मामले में 15 अगस्त, 1947 की स्थिति बहाल की जाए। यदि वहां जमीन आवंटित हो चुकी है तो उसे अवैध घोषित किया जाए। कचरा और खनन का मलबा डालने पर जुर्माना लगाया जाए। और भी कई निर्देश दिए गए थे, लेकिन जल संसाधन विभाग के अधिकारियों को अदालत के आदेशों को कचरे के डिब्बे में डालकर झूठ पर झूठ बोलने की आदत पड़ चुकी है। वे जनहित को अपनी कमाई के लिए दांव पर लगाने को तैयार हैं तो अदालत के आदेशों के झूठे जवाब गढऩे में कितना जोर आता है।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने 2011 में स्व:प्रेरणा से रामगढ़ बांध के मामले में सरकार से जवाब-तलब किया था। उसके बाद कई बार मुख्य सचिवों को तलब किया गया। मॉनीटरिंग कमेटी बनाई। अप्रेल, 2018 में भी मुख्य सचिव को हाजिर होना पड़ा। चेतावनी दी गई कि रिपोर्ट गलत हुई तो मुकदमा चलाया जाएगा। लेकिन फिर भी अफसरशाही के कानों पर जूं नहीं रेंगी। अतिरिक्त मुख्य सचिव स्तर का नोडल अफसर भी नियुक्त किया गया, लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात। न्यायालय के आदेशों की अनुपालना हो रही है या नहीं, इसे साबित करने के लिए एक ही तथ्य काफी है कि बांध में पहले की तरह पानी आ रहा है या नहीं। और यह बच्चा-बच्चा जानता है कि बांध सूखा का सूखा पड़ा है। इस तथ्य से बचने के लिए अफसर कभी कम वर्षा का बहाना गढ़ते हैं तो कभी बांध में मिट्टी भरे होने का। जबकि भरपूर वर्षा होने पर भी बांध में पानी नहीं आया। बांध में मिट्टी है तो कम से कम जलग्रहण क्षेत्रों में तो नदी समान पूरे वेग से पानी चलना चाहिए था, पर अतिक्रमणों के कारण ऐसा होना असम्भव हो चुका है।
इस पूरे मामले में न्यायपालिका की गरिमा और मान-सम्मान भी दांव पर लगा है। जब अदालत के आदेशों को सरकारी अफसर मजाक में उड़ा देते हैं तो जनता में संदेश जाता है कि न्यायपालिका अब अपने ही आदेशों की पालना कराने में सक्षम नहीं रही। इसलिए राज्य और जनहित के बड़े मामलों को प्राथमिकता और दृढ़ता से आगे बढ़ाना और नतीजे लाकर दिखाना जरूरी है। मॉनीटरिंग कमेटी और नोडल अफसर जैसे कदम निश्चित ही सराहनीय हैं, पर उनकी भी समयबद्ध तरीके से जवाबदेही होनी चाहिए। अभी तो कोरोना की वजह से अफसर बेफिक्र हो चुके हैं। उन्हें लगता है बड़े मामले सुनवाई के लिए आएंगे ही नहीं तो क्यों डरें और किससे डरें। -समाप्त
प्रवाह… झूठ का पुलिंदा-1

प्रवाह… झूठ का पुलिंदा-2

प्रवाह… झूठ का पुलिंदा-3

Home / Prime / Opinion / प्रवाह… झूठ का पुलिंदा-4

Copyright © 2024 Patrika Group. All Rights Reserved.