विष्णु खरे की कविता ने नए कथ्यों के साथ एक नई भाषा और संरचना की शुरुआत की। वह गद्यात्मक, निबंध जैसी और अलंकरण-विहीन हुई, उसने परवर्ती पीढिय़ों को बहुत आकर्षित किया और बहुत से कवि उनके गैर-पारंपरिक शिल्प में लिखने लगे। उनके पांच संग्रहों में फैली हुई कविता इस बात का दस्तावेज है कि एक समर्थ कवि कितनी बेचैनी के साथ समकालीन जीवन और यथार्थ की चीर-फाड़ करता है और किस तरह एक शुष्क और ठोस गद्य में गहरे इंसानी जज्बे को पैदा कर देता है।
विश्व कविता के कई बड़े कवियों की रचनाओं का अनुवाद उनका दूसरा बड़ा काम था। दरअसल उन्होंने उन्नीस साल की उम्र में बीए में पढ़ते हुए ही टीएस एलियट की प्रसिद्ध कविता ‘वेस्टलैंड’ को हिंदी में ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएं’ नाम से अनूदित किया था। हिंदी कविता को अनुवाद के जरिए अंग्रेजी, जर्मन, डच आदि भाषाओं में पंहुचाना उनका तीसरा उल्लेखनीय काम था। उन्होंने जर्मन विद्वान लोठार लुत्से के साथ हिंदी कविता के जर्मन अनुवादों का पहला संकलन संपादित किया।
आलोचक के रूप में विष्णु खरे ने कवि चंद्रकांत देवताले का गहरा विश्लेषण करते हुए उनकी एक प्रमुख कवि के रूप में पहचान की। उनकी आलोचना भी बहुत साहसिक और चुनौती-भरी रही है और उसने आलोचना के अकादमिक प्रतिष्ठान को यह कहकर चुनौती भी दी कि ‘रामचन्द्र शुक्ल नहीं, मुक्तिबोध हिंदी के सबसे बड़े आलोचक हैं।’
अठत्तर वर्ष के जीवन में विष्णु खरे अपनी विवाद-प्रियता के लिए भी जाने गए। वे बेबाक, दो-टूक और कभी-कभी एक नाटकीय गुस्से के साथ अपनी बात कहते थे, लेकिन खास बात यह कि उसके पीछे हमेशा कोई सचाई होती थी और एक नेकनीयती सक्रिय रहती थी। विष्णु खरे शास्त्रीय और फिल्म संगीत के साथ-साथ सिनेमा के भी गहरे जानकार थे। उनकी कई किताबें हिंदी और विश्व सिनेमा को पढऩे और समझने की राह खोलती हैं। उन्हें सिनेमा की बुनियादी पाठ्य-सामग्री की तरह भी पढ़ा जा सकता है।