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सत्ताधारियों से परिणाम की अपेक्षा

कितना ही दावा किया जाए, लेकिन 2019 में ‘मंदिर मुद्दा’ चुनावी भविष्य तय नहीं कर सकता है।

Jan 02, 2019 / 10:20 am

Navyavesh Navrahi

alok mehta

सत्ताधारियों से परिणाम की अपेक्षा

आलोक मेहता, वरिष्ठ पत्रकार

चुनावी मौसम में वही बादल, बिजली, इन्द्रधनुष का खेल। मतदाताओं का मन मोर बादलों की भागदौड़ से नाचने लगता है। नए साल में खुशियों की बरसात की उम्मीदें जगा रहा है। निश्चित रूप से राजनीतिक दलों को ‘जादुई मंत्र’ तलाशने पड़ रहे हैं। अब घिसे-पिटे फार्मूले नहीं चल सकते हैं। लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि सुदूर गांव के मतदाता अब अधिक जागरूक हो गए हैं। यही कारण है कि पहली बार किसान और ग्रामीण क्षेत्र राजनीतिक भविष्य का केन्द्र बन गए हैं। पहले टोपीधारी नेता या टाई लगाए अफसर दो-चार बार दर्शन देकर भोलीभाली जनता को धन्य कर देते थे। अब गांव, कस्बे और शहर का वर्ग सत्ताधारियों से जीवनोपयोगी परिणाम की अपेक्षा करता है।
दूसरी तरफ संकट यह है कि राजनीतिक दलों में बादलों की तरह वैचारिक भटकाव है। विचारधारा की स्पष्ट राह कोई नहीं दिखा रहा है। यूरोप और अमरीका की तरह तीन-चार राष्ट्रीय राजनीतिक दलों की आर्थिक नीतियां लगभग समान हो गई हैं। अब कौन समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष, शुद्ध हिन्दुत्ववादी या असली माक्र्सवादी नीतियों-आदर्शों का दावा कर सकता है? सत्ता के लिए अपने वर्षों पुराने विचारों/संकल्पों को किनारे करके घोर विरोधियों के साथ तालमेल और आंखमिचौली के लिए तैयार है।
वर्तमान प्रतिपक्षी दलों ने घोषित रूप से कह दिया कि उनका एकमात्र लक्ष्य भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सत्ता से हटाना है। लगभग 40 वर्ष पहले श्रीमती इंदिरा गांधी और कांग्रेस को हटाने के लिए भी प्रतिपक्ष ने यही लक्ष्य बनाया था। तब भी कम्युनिस्ट वैचारिक आधार पर कांग्रेस के साथ थे। संघ-जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टियों के पास प्रतिबद्ध समर्पित कार्यकर्ता थे और जनता के आक्रोश को आंदोलनों में बदलने की क्षमता थी। जयप्रकाश नारायण ही नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी, मधु लिमये, मधु दंडवते, जार्ज फर्नांडिस, चौधरी चरण सिंह, कर्पूरी ठाकुर जैसे अनेक नेता थे। वर्तमान दौर में प्रतिपक्ष के पास क्या एक भी ऐसा जुझारू नेता है, जो देश में सत्ता परिवर्तन की लहर पैदा कर सके?
वहीं घोर कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी शिव सेना अपनी जन्मजात भगिनी भारतीय जनता पार्टी का दामन छुड़ाने के लिए निरंतर बेचैन दिख रही है। भाजपा पं. दीनदयाल उपाध्याय के नाम और संघ के आदर्शों की दुहाई अवश्य दे रही है, लेकिन सत्ता समीकरण के लिए कई संकल्पों और वायदों को सरकारी फाइलों की तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी केरल में कांग्रेस से समझौते को तैयार है और पश्चिम बंगाल में किसी कीमत पर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को परास्त करना चाहती है। चार दशकों पहले कांग्रेस भी केरल में कम्युनिस्टों से निपटने और पूर्वोत्तर में विदेशी मिशनरी से बचाव के लिए अप्रत्यक्ष रूप से संघ की संगठनात्मक शक्ति का उपयोग कर लेती थी। लेकिन अब तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जनेऊधारी बनकर मंदिर-मंदिर भटकते हुए धर्म की माला जपने लगे हैं। वैचारिक शून्यता के साथ अब किसान और बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है।
यों पिछले 30 वर्षों में महंगाई और बेरोजगारी भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों में बड़ा मुद्दा रहा है। फ्रांस में तो पिछले डेढ़ महीनों से महंगाई-बेरोजगारी पर लाखों लोग सड़कों पर उतरकर आंदोलन कर रहे हैं। भारत की समस्या यह है कि 1992 के बाद उदार आर्थिक नीतियों के साथ समाज के हर वर्ग को कर्ज लेकर घी पीने की आदत डालने की कोशिश की गई। हमने अपने दादाजी के जीवन काल में उन्हें या कृषि क्षेत्र से जुड़े बहुसंख्य लोगों को कभी कर्ज लेते नहीं देखा-सुना। यहां तक कि पिता आयु वर्ग में लाखों लोग जीवन बीमा लेने की जरूरत महसूस नहीं करते थे। इसका यह मतलब नहीं कि आर्थिक प्रगति के साथ जीवन स्तर सुधारने की जरूरत नहीं है। लेकिन चुकाने की क्षमता देखे बिना कर्जदारों की संख्या करोड़ों में पहुंचने से आर्थिक-सामाजिक तनाव बढ़ता जा रहा है। अरबपति व्यापारी से लेकर औसतन 20 हजार रुपया कमाने वाले भी कर्ज लेकर तरक्की के आकांक्षी हो गए हैं। इसलिए किसानों की कर्जमाफी का अभियान क्या असली समाधान है? किसानों को खेती की सुविधा जुटाने, फसल उत्पादन का सही मूल्य दिलाने और गांवों के समन्वित विकास से कर्ज की अंधी दौड़ को क्या बहुत हद तक नहीं रोका जा सकता है?
सारी घोषणाओं और वायदों के बावजूद विभिन्न राज्यों में शिक्षा और स्वास्थ्य की समान योजनाएं लागू नहीं है। प्रादेशिक स्वायत्तता के नाम पर मनमानी नीतियों का पालन हो रहा है। क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढऩे का एकमात्र कारण यही है कि राष्ट्रीय दलों ने क्षेत्रीय क्षत्रपों और उनके हितों की अनदेखी की। इसलिए अब बंगाल, बिहार, झारखण्ड, तेलंगाना, आंध्र, कर्नाटक या पंजाब में स्थानीय हितों को ही सामने रखा जा रहा है। वे अपनी अलग पहचान बनाना चाहते हैं। कितना ही दावा किया जाए, लेकिन 2019 में ‘मंदिर मुद्दा’ चुनावी भविष्य तय नहीं कर सकता है।
भटकाव के दौर में जिम्मेदार राष्ट्रीय दलों को दूरगामी राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर व्यावहारिक कार्यक्रम और घोषणा -पत्र जनता के सामने रखने चाहिए। प्रतिपक्ष की अलग-अलग दिशा रहने का लाभ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जरूर मिल सकता है। उनके इरादे नेक रहे हैं और कुछ क्रांतिकारी निर्णयों ने संपूर्ण व्यवस्था को झकझोरा है। फिर भी उन्हें भी विश्वास दिलाना होगा कि आने वाले वर्षों में सामान्य जनों के हितों की रक्षा हो सकेगी। गरीबों को घर, गैस कनेक्शन, स्वास्थ्य बीमा से करोड़ों लोगों को लाभ मिल सकता है। लेकिन घर में जीवनयापन, रोजगार, शिक्षा की समुचित व्यवस्था होने पर ही तो राहत मिलेगी।
वायदे कांग्रेस पार्टी भी कर रही है और इसका लाभ हाल के विधानसभा चुनाव में एक हद तक मिला है। लेकिन यह फार्मूला तात्कालिक लाभ दे सकता है। हवा का रुख बदलते देर नहीं लगती। प्रकृति और जनता जनार्दन की कृपा निरंतर बनाए रखने के लिए मायावी जाल बिछाने के बजाय सच्चा सेवा भाव अपनाना होगा।

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