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लोकप्रिय सिनेमा बनाने की होड़ में गौण होती गई समीक्षा

आर्ट एंड कल्चर: दादा साहब फाल्के और सत्यजीत राय की परम्परा का निर्वहन करने आए फिल्मकारों ने नहीं समझी अहमियत

May 28, 2023 / 09:20 pm

Patrika Desk

लोकप्रिय सिनेमा बनाने की होड़ में गौण होती गई समीक्षा

लोकप्रिय सिनेमा बनाने की होड़ में गौण होती गई समीक्षा

विनोद अनुपम
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक
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कोई भी कला विधा, खासकर नई कला विधा बगैर समीक्षक के अपने आपको संवार नहीं सकती। समीक्षकों की अनिवार्यता इसी से समझी जा सकती है कि निराला को आरम्भिक दिनों में खुद ही छद्म नाम से अपनी समीक्षा लिखनी पड़ी थी। अपने आरम्भिक दौर में दादा साहेब फाल्के के सामने भी सिनेमा विधा को लोकप्रिय बनाने का मिशन था। उन्होंने फिल्म निर्माण के साथ ही उस समय की ‘केशरी’ और ‘नव युग’ जैसी पत्रिकाओं में सिनेमा पर कई आलेख भी लिखे। संयोग नहीं कि भारत में सिनेमा के साथ ही ‘सिनेमा समीक्षा’ की भी शुरुआत हो गई। उल्लेखनीय है कि दोनों ने ही इस माह अपने 110वें वर्ष में प्रवेश किया।
3 मई 1913 को दादा साहेब फाल्के की पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ, और एक दिन के अंतराल के बाद 5 मई को ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में इसकी समीक्षा छपी। इन 110 वर्षों में भारतीय सिनेमा ने अपनी वैश्विक पहचान के साथ वैश्विक बाजार भी बनाया है। तकनीकी रूप से फिल्में भव्य होती गई हैं। लेकिन भारतीय फिल्म समीक्षा अभी भी वहीं कहीं पहचान की प्रतीक्षा में ठहरी हुई-सी है।
सिनेमा समीक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए सत्यजीत राय ने कहा था, ‘ऐसी भी फिल्में हुआ करती हैं जिनका रसास्वादन केवल वे ही कर सकते हैं जो गुणग्राही हैं। यहां समीक्षकों को आगे बढक़र ‘शिक्षक’ की भी भूमिका अदा करनी होगी।’ साहित्य में जितनी ही शिद्दत से इस ‘शिक्षक’ की अनिवार्यता आज भी समझी जाती है, हिन्दी सिनेमा के लिए यह उतनी ही त्याज्य रही है। जैसे-जैसे सिनेमा को लोकप्रियता मिलती गई, अपने संप्रेषणीयता के अहं में मगन सिनेमा को अपने और दर्शकों के बीच किसी भी ‘शिक्षक’ की जरूरत का अहसास खत्म होता चला गया, जिसकी जरूरत दादा साहब फाल्के ने सिनेमा के आरंभिक दौर में ही महसूस की थी।
दर्शकों के लिए अपनी फिल्म को संप्रेष्य बनाने के लिए उनके बाद के फिल्मकारों ने एक ‘शिक्षक’ तैयार करने के बजाय फिल्म को ही सहज संप्रेष्य बनाने का आसान रास्ता चुना। उन्हें अहसास नहीं था कि हल्कापन भी अंतत: ऊब देने लगता है। मुख्यधारा के सिनेमा को तो छोड़ ही दें, कला सिनेमा के एक-एक कर ढहते स्तम्भों को देखकर भी राय की बातों से सहज ही सहमत हुआ जा सकता है। आश्चर्य ये अवश्य लगता है कि जिस अनिवार्यता को राय समझ रहे थे, उनकी परम्परा का निर्वहन करने आए फिल्मकारों ने क्यों नहीं समझा? साहित्य और सिनेमा की प्रतिबद्धता का फर्क इसी से समझा जा सकता है। निराला अपनी रचना के पक्ष में खुद खड़े हुए, बाद में समीक्षकों की बड़ी कतार उनके पीछे खड़ी हुई। पर हिन्दी फिल्मकारों ने इस जहमत में फंसने की कोशिश ही नहीं की। निराला के पास पाठकों की अभिरुचि को उन्नत करने की प्रतिबद्धता थी। उन्होंने अपना स्तर कमतर नहीं किया, पाठकों को अपनी रचना के स्तर तक पहुंचाने की कोशिश की।
सत्यजीत राय ने कभी अपनी कला को दर्शकों की रुचियों तक उतारने की कोशिश नहीं की। फिल्मकारों के लिए भी उन्होंने अच्छे सिनेमा की कसौटी तैयार की और लगातार लेखन से दर्शकों को भी बेहतर सिनेमा के लिए तैयार किया। इसके बरक्स हिन्दी फिल्मकारों ने बेहतर सिनेमा को लोकप्रिय बनाने की दिशा में या फिर सिनेमा को कला परिदृश्य के केन्द्र में लाने के लिए स्वयं तो कोई कोशिश नहीं ही की, हिन्दी में समीक्षकों की परम्परा को हतोत्साहित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।

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