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श्रीलाल शुक्ल विरचित हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य उपन्यास राग दरबारी में एक जोरदार पात्र है सनीचर। यूं नाम उसका

Feb 03, 2016 / 11:15 pm

मुकेश शर्मा

Snicr

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श्रीलाल शुक्ल विरचित हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य उपन्यास राग दरबारी में एक जोरदार पात्र है सनीचर। यूं नाम उसका मंगलदास है पर सारे गांव वाले उसे सनीचर कहते हैं। अब जरा सनीचर का रूप रंग भी देख लीजिए- नाम सनीचर। बदन नंगा। कई जगहों से फटा जांगिया। बालों में चुपड़ा कड़वा तेल पर चेहरा प्रसन्न। पता लगाना मुश्किल कि उसका मुंह ज्यादा फटा हुआ है या कच्छा। तात्पर्य यह कि शनीचर को देख कर यह साबित हो जाता है कि अगर हम खुश रहें तो गरीबी हमें दुखी नहीं कर सकती और गरीबी को मिटाने की असली योजना यही है कि हम बराबर खुश रहें। इसी सनीचर को एक दिन गांव का प्रधान बना दिया जाता है।


अब आप पूछेंगे कि आज हमें शनीचर कैसे याद आ गया। दरअसल आजकल शनि खतरे में है क्योंकि जागरूक महिलाओं ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल लिया है। सॉरी। शनिदेव के विरुद्ध नहीं बल्कि उन ठेकेदारों के खिलाफ जिन्होंने शनिदेव की नाकाबंदी करके उन्हें अपने कब्जे में ले रखा है। अब महिलाएं मांग कर रही हैं कि वह भी शनिसिंगणापुर के चबूतरे पर चढ़ शनि पर तेल चढ़ाएंगी। वैसे अगर क्रांतिकारी महिलाएं बुरा न मानें तो एक बात कहें- काहे को अपना समय, शक्ति और दिमाग खराब कर रही हैं।


 सत्य तो यह है कि शनि कोई देवता नहीं है वरन एक ग्रह है। शंकराचार्य महोदय की दस बातों से असहमति रखते हुए भी हम उनकी इस बात का समर्थन करते हैं कि शनि की पूजा उसे बुलाने के लिए नहीं बल्कि दूर भगाने के लिए की जाती है, बाबा तुलसीदास की तरह जो सज्जनों के साथ असज्जनों (दुष्टों) की चरण वंदना करते हुए कहते हैं- बंदऊ संत-असज्जन चरणा। मिलत एक प्राण हर लेऊ। बिछुरत एक दारुण दुख देऊ। दुष्ट से मिलने का अर्थ है जी का जंजाल हो जाना। अरे माताओ- बहनो। क्या आपके पास और कोई आवश्यक काम नहीं बचा। हमारे एक मित्र ने बड़ी जोरदार बात कही- अगर महिलाएं, लोभी कथावाचकों, फर्जी उपदेशकों, लालची संतों के प्रवचनों और सभाओं में जाना छोड़ दें तो उनका समय काटना मुश्किल हो जाए। शनि का प्रकोप कम करने का दावा करने वाले हर शनिवार को शहर भर के चौराहों पर हाथ में लोटा लिए दिखलाई दे जाते हैं।


शनिदेव की मूर्ति सहित यह लोटे किराए पर मिलते हैंं। आप चाहे तो साप्ताहिक पार्टटाइम जॉब कर सकते हैं। बहरहाल निवेदन यही है कि जहां सम्मान नहीं दिया जाता वहां वे जाती ही क्यों हैं। जिस जगह उन्हें प्रवेश नहीं दिया जाता उस जगह का बहिष्कार करें। न स्वयं जाएं न अपने धणी और बच्चों को जाने दें लेकिन हो उल्टा रहा है। बाबा कहते हैं कि ‘जहां आंखों में प्रेम नहीं और हृदय में नहीं नेह; तुलसी वहां न जाइए चाहे कंचन बरसे मेहÓ। अब तय तो आपको ही करना है। वैसे चाहे राग दरबारी का सनीचर हो या ग्रहों का शनि- ये हमसे जितना दूर रहें उतना ही ठीक है। – राही

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