अफसर बन गए तो तनखा में तो कोई ‘रोळी-दावा’ नहीं, साथ ही कमीशन का झरना बहकर घरवाली की अलमारी तक आ जाता है। यह आज की बात नहीं है। मुंशी प्रेमचंद ने तो कोई सौ बरस पहले लिखी अपनी अमर कहानी ‘नमक का दारोगा’ में रिश्वत की महिमा का कुछ यूं गुणगान किया है। ईमानदार युवक बंशीधर को उनका बाप नसीहत देते हुए कहता है- बेटा! ऐसा काम ढूंढऩा जहां ‘ऊपरी आय’ हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चांद है जो एक दिन दिखता है और फिर घटते-घटते लुप्त हो जाता है।
‘ऊपरी आय’ तो ऐसा बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। आज बापू ही क्यों पढ़ाने वाले शिक्षक भी अपने चेलों को यही सिखाते हैं- अफसर बनो। हमने एक-दो नहीं दर्जनों रिटायर अध्यापकों को अपनी डींग हांकते सुना है कि देखो मेरे पढ़ाए लड़के आज कलक्टर हैं, अफसर हैं, आईजी हैं, पर ऐसा कहने वाले मास्टर मातादीन जैसे एकाध ही हैं जो बुलन्द आवाज में कहते हैं- देखो मेरा शिष्य आज बड़ा राइटर है। एक्टर है। हमारी नजर में पैसा और पद ही माई बाप हो गया है।
ईमानदारी से कमाए नाम और पैसे की अहमियत तो भूल ही चुके हैं। तभी तो विश्वविद्यालय भी अपने छात्रों को सिखाने के लिए अफसरों को ही बुलाते हैं, किसी ‘राइटर’ को नहीं। क्योंकि ‘राइटर’ क्या कहेगा- ‘ईमानदार बनो’। ‘नैतिक’ बनो। ‘संवेदनशील’ बनो।
अपनी औलादों को बेईमानी का रास्ता दिखाकर हम पड़ोसी के छोरों से ईमानदार होने की चाहत रखते हैं। वाह रे लपूझनों वाह। व्यंग्य राही की कलम से