क्या मरीज उनके लिए एक ग्राहक से ज्यादा कुछ होगा? पर हमारे जनप्रतिनिधियों को यह दिखाई नहीं देता है या शायद उनके निहित स्वार्थ हैं। कारण कुछ भी हो, पर कीमत तो आम आदमी को ही चुकानी है। सरकारें आती-जाती रही हैं। सभी ने आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के आंसू पौंछने का दम भरा है, पर जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। हम कैसे समाज का निर्माण करने जा रहे हैं। लोकशाही में तो आम आदमी को ध्यान में रखकर ही नीतियां बनती हैं। पर शायद निजी मेडिकल कॉलेज इस दायरे में नहीं आते।
चिकित्सा क्षेत्र में तो इस तरह का निजीकरण नहीं किया जाना चाहिए। राज्य में मेडिकल कॉलेजों चलाने वाले कई संस्थानों के पास विश्वविद्यालय कादर्जा भी है। यह दर्जा कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। सबके अपने एक्ट हैं, सबकी अपनी फीस है, जो ये खुद तय कर रहे हैं। एक वर्ष की फीस के कोई दस लाख ले रहा है तो कोई बीस लाख। फीस का पैमाना क्या है? ये फर्क क्यों है? कोई उत्तर नहीं है। सरकार खामोश है। हाथ पर हाथ धरे बैठी है। उसे यह सब नजर नहीं आ रहा है।
वह कार्रवाई के नाम पर खानपूर्ति कर रही है। एमबीबीएस के लिए एक अलग से उच्चस्तरीय फीस समिति बनानी चाहिए। इस बारे में सरकार क्यों नहीं पहल करती। देशहित और जनहित से बड़ा कुछ नहीं होता है। इन विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के नाम पर ये कैसा खेल चल रहा है? इनसे जुड़े अस्पतालों का हाल सभी जानते हैं। इन अस्पतालों में व्यावहारिक प्रशिक्षण कैसा होगा? इंटर्नशिप ही नींव होती है। जब वही ठीक नहीं होगी तो….।
डॉक्टरों की कमी की दुहाई देकर जो कुछ किया रहा है, वह सही नहीं है। अगर किसी अयोग्य या अनाड़ी ड्राइवर के हाथ में गाड़ी हो तो मंजिल तक सुरक्षित पहुंचना यात्रियों का अपना भाग्य ही होगा। ये कॉलेज और विश्वविद्यालय डिग्री उत्पादन के कारखाने मात्र तो बनकर नहीं रह जाएंगे और इस तरह बने हुए डाक्टर लाइसेंसशुदा झोलाछाप नहीं होंगे तो और क्या होंगे?
पैसा दो, डिग्री लो। इलाज करने का परमिट तो मिल ही जाएगा, जो पैसा पढ़ाई में लगाया वो भी वसूल हो जाएगा। क्या यही चिकित्सा के पावन पेशे के मूलमंत्र रह जाएंगे। जो मेहनत करके आगे बढ़े हैं, वे पिस जाएंगे या अलग-थलग कर दिए जाएंगे, क्योंकि उनकी संख्या बहुत कम रह जाएगी। अधिक फीस के कारण प्रतिभाशाली रह जाते हैं।
समय रहते नहीं जागे तो परिणाम खतरनाक होंगे। जब जमे-जमाए सरकारी कॉलेजों में ही फैकल्टी पूरी नहीं है तो इनमें क्या….। निजी मेडिकल कॉलेजों का विरोध नहीं है, अलबत्ता उनकी बेतहाशा बढ़ी हुई फीस उचित नहीं है। कुछ कॉंलेजों में तो फीस के इतर भी बहुत कुछ कारोबार चल रहा है।
केंद्र सरकार ने हाल ही में एक अच्छा निर्णय किया कि सभी मेडिकल कॉलेजों में नीट की मेरिट के आधार पर ही एडमिशन दिया जाएगा। इसके बाद कोर्ट-कचहरी से भी निजी मेडिकल कॉलेजों को कोई छूट नहीं मिली। 30 सितम्बर को मेडिकल कॉलेजों की काउंसलिंग पूरी हो चुकी है। कॉलेज बैंक गारंटी लेकर मस्त है पर इनकी फीस को लेकर सरकार मौन है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। नीट से दाखिले के आदेश के बाद अधिकांश कॉलेजों में फीस बढ़ा दी गई।
देश में शायद ही ऐसा कोई निजी मेडिकल कॉलेज हो, जो सारे मापदंड पूरे करते हुए उचित फीस वसूल रहा हो। सरकारें तो बेहतर डॉक्टर बनाने के लिए निजी मेडिकल कॉलेजों पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हंै, पर हमें जस्टिस भार्गव की कमेटी से कुछ उम्मीदें है।
वैसे न्यायालय में भी फीस को लेकर कई मामले लंबित हैं। कोर्ट ने नीट को लेकर जिस तरह दूध का दूध और पानी का पानी किया, उसी से इन निजी कॉलेजों ने कुछ घुटने टेके हैं। इन कॉलेजों की फीस और गुणवत्ता को लेकर समय रहते कुछ नहीं किया गया, तो स्थिति भयावह होगी। फीस से कमीशन व पैकेज तक हम पहुंच ही चुके हैं। आगे जाने कहां…….।
sandeep.purohit@epatrika.com