scriptबड़ी भूल-सही सजा | SC punished CBI's controversial former interim director Nageshwar Rao | Patrika News
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बड़ी भूल-सही सजा

उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें और अन्य संस्थाएं इससे सबक लेंगी और देश की न्यायपालिका को फिर ऐसी कठोर और अप्रिय सजा सुनाने का मौका नहीं देंगी

जयपुरFeb 13, 2019 / 02:31 pm

dilip chaturvedi

Nageswara Rao

Nageswara Rao

सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआइ के विवादास्पद पूर्व अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव व इसी केंद्रीय जांच एजेंसी के विधिक सलाहकार को अपनी अवमानना के एक मामले में एक-एक लाख रुपए के जुर्माने और मंगलवार को अदालत उठने तक अदालत कक्ष के कोने में बैठने की सजा से दंडित किया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की सदारत वाली तीन सदस्यीय पीठ ने यह सजा सीबीआइ के ही संयुक्त निदेशक एके शर्मा का अदालती रोक के बावजूद तबादला करने पर सुनाई। शर्मा, बिहार के मुजफ्फरपुर आश्रयगृह में बालिकाओं से ज्यादतियों के मामले की जांच टीम के सर्वेसर्वा थे।

सजा सुनाने से पहले कोर्ट ने तबादले पर इन अफसरों की जमकर खिंचाई की और राव द्वारा मांगी बिना शर्त माफी को ठुकरा दिया। राव ने अपनी माफी में कहा था कि जो कुछ हुआ वो अनजाने में हुआ था। वे कोर्ट की अवमानना की बात सपने में भी नहीं सोच सकते। राव के माफीनामे के साथ कोर्ट ने वही किया जो उसे करना चाहिए था। यद्यपि इन वर्षों में सीबीआइ की प्रतिष्ठा को धूल-धूसरित करने की कोशिशें कम नहीं हुई हैं। फिर भी यह सच है कि आज भी किसी विवादास्पद मामले में जांच की मांग सीबीआइ से ही की जाती है। यदि एक मिनट के लिए राव की माफी को ‘मेरी भोली भूलों को अपराध न समझो’ मान भूलने की कोशिश भी की जाए तब दूसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसी प्रतिष्ठित एजेंसी का मुखिया इतना भोला-भाला होना चाहिए?

सुप्रीम कोर्ट से बड़ी कोई अदालत नहीं है। यदि उसके दो बार मना करने के बावजूद शर्मा का तबादला होता है, तब उसे गैर इरादतन मानना शायद एक और बड़ी भूल होती जो सुप्रीम कोर्ट ने नहीं की। एक लाख का अर्थदंड कोई बड़ा नहीं है। पर कोर्ट उठने तक कोर्ट रूम के एक कोने में बैठने की सजा छोटी नहीं है। इससे बड़ी बेइज्जती किसी की नहीं हो सकती। यह मानना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय ने यह सजा खुश होकर नहीं सुनाई होगी। यह भी मानना चाहिए कि ऐसी कठोर सजा के लिए न्यायाधीशों का मन इस एक मामले से ही नहीं बना होगा। इसके पीछे पिछले वर्षों में सामने आए उन सब मामलों का दबाव भी कोर्ट पर होगा जिनमें केंद्र हो या देश की विभिन्न राज्य सरकारें, अलग-अलग मामलों में उसके निर्णयों को हल्के में लेती रही हैं। लोकपाल की नियुक्ति का अनूठा मामला भी ऐसा ही है।

पांच साल पहले सरकार ने देश में लोकपाल बनाने का निर्णय कर लिया और उसके चयन के लिए बनी समिति की पहली बैठक अब पंद्रह दिन पहले हुई है। इस बीच कोर्ट ने कई बार सरकार को चेता दिया पर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश-प्रदेशों की सरकारें और सीबीआइ जैसी अन्य संस्थाएं इससे सबक लेंगी और देश की न्यायपालिका को फिर ऐसी कठोर और अप्रिय सजा सुनाने का मौका नहीं देंगी। उनके सामने यह अवसर है जब वे तमाम न्यायिक निर्णयों की समीक्षा करें और जो लागू नहीं हुए हैं उन्हें बिना और समय लगाए लागू करें। न्यायालयों को भी ऐसी सूरत से बचने के लिए अपने निर्णयों की क्रियान्विति की समय सीमा तय करते हुए वह लागू हुए या नहीं हुए, इस पर निगरानी करने के लिए एक व्यवस्था बनानी चाहिए।

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