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‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ : सूर्य ही नृसिंह है

– विष्णु के अवतार तो हम सभी हैं। प्रत्येक प्राणी के समक्ष धर्म-अधर्म रहते हैं। प्रत्येक के भीतर विष्णु बैठे हैं। कौन किस संकल्प के साथ अधर्म से संघर्ष करता है, वही अवतार की परिभाषा में वैसे ही जुड़ा रहेगा।- नृसिंह अवतार के दृष्टान्त से हम सृष्टि के एक महत्त्वपूर्ण रहस्य को खोल सकते हैं। कूर्म-वराह अवतार की तरह ही नृसिंह अवतार भी सूक्ष्म तात्विक महत्व के दृष्टान्त है। इनको राम और कृष्ण के समकक्ष रखकर तुलना नहीं की जा सकती। वे स्थूल रूप में – पूर्ण पुरुष – हमारे मध्य थे।

नई दिल्लीOct 23, 2021 / 12:49 pm

Gulab Kothari

'शरीर ही ब्रह्माण्ड' : सूर्य ही नृसिंह है

‘शरीर ही ब्रह्माण्ड’ : सूर्य ही नृसिंह है

गुलाब कोठारी, (प्रधान संपादक, पत्रिका समूह)

दशावतार की अवधारणा विष्णु तत्व के आधार पर खड़ी है, न कि किसी देहधारी पुरुष पर। चूंकि शरीर और ब्रह्माण्ड के सिद्धान्त समान हैं, अत: इनको प्रत्येक प्राणी पर भी लागू किया जा सकता है। प्रत्येक जीव विष्णु का ही अंश है। सृष्टि क्रम में विष्णु किस क्रम से आगे बढ़ते हैं, सातों लोकों में समान रूप से दिखाई पड़ते हैं, इसे प्रमाणित करना ही इस अवधारणा का उद्देश्य दिखाई पड़ता है। हमारी पौराणिक कथाएं एक प्रकार से सूत्र रूप में सृष्टि प्रक्रिया को ही इंगित करती हैं। हमें शब्दों को नहीं पकडऩा चाहिए। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र आदि तत्वों के ही नाम हैं। कथाएं इनके स्वरूप एवं कार्यों से ही परिचय कराती हैं।

उदाहरण के लिए नृसिंह अवतार की कथा को ही लीजिए। चारों ओर आसुरी साम्राज्य, हिरण्य कश्यप राजा, प्रह्लाद पुत्र भी और विष्णु भक्त (अंग) भी। प्रह्लाद को भक्ति से च्युत करने के प्रयास निरन्तर बने रहे, किन्तु सफल नहीं हुए। असुर का अर्थ अंधकार भी होता है, क्योंकि असुर सदा अंधकार में ही रहते हैं। एक बात यह भी है कि सभी पौराणिक कथाएं प्रकृति को भी संकेत रूप में दर्शाती हंै। भारतीय ऋषि परम्परा ने ज्ञान को प्रकृति से जोड़ दिया, ताकि वह कभी नष्ट नहीं हो सके। तारे को धु्रव का नाम देना या गंगा को शिव-जटाओं से निकलते दिखाना, भागीरथी कहना, कथाओं की याद दिलाते हैं। दशावतार सृष्टि की निरन्तर प्रक्रिया का अंग है। किसी काल विशेष से जुड़ी नहीं हो सकती। सृष्टि के मूल स्वरूप को यथावत रखने वाली प्रक्रियाएं हैं। सृष्टि नित्य सूक्ष्म से स्थूल बनती रहती है, स्थूल से सूक्ष्म बनती जाती है। लय और प्रलय ही सृष्टि का आदान-विसर्ग रूप है। तब प्रश्न यह पैदा होता है कि ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ के सिद्धान्त को कैसे लागू किया जाए। शरीर के निर्माण से मृत्युपर्यन्त विष्णु ही अपने ‘दशावतार’ स्वरूप को किस प्रकार निरन्तर व्यवस्थित रखते हैं-हर प्राणी में जड़-चेतन में। इसको समझने के लिए हमें इतिहास से बाहर निकलना ही पड़ेगा। यह विषय शोधकर्ताओं के लिए ही छोड़ देना उचित होगा। हमें तो वेद विज्ञान दृष्टि से ही विषय को समझना चाहिए।

वेद विज्ञान दृष्टि से सूर्य ही हमारा नृसिंह अवतार है। सूर्य का ऊपर का आधार भाग अमृत सृष्टि से जुड़ा है तथा नीचे का आधा भाग मृत्यु लोक से सम्बन्ध रखता है। सूर्य के ऊपर कहीं पृथ्वी (भूपिण्ड) जैसा घन अग्नि पिण्ड नहीं है। अत: सूर्याग्नि आगे बढ़ते-बढ़ते शुद्ध विष्णु रूप (33वें स्तोम पर) बन जाती है। इसके विपरीत नीचे से भूपिण्ड की अग्नि ऊपर उठती है। सूर्य की अग्नि (आदित्य) के साथ मिलकर वैश्वानर अग्नि पैदा करती है, जो कि प्रत्येक प्राणी के जीवन को चलाती है।

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित:।
प्राणापानसमायुक्त: पचाम्यन्नं चतुर्विधम्। -गीता 15.14

पिण्ड से सूर्यपर्यन्त अग्नि का ही साम्राज्य है। इसी क्षेत्र में हमारे तैंतीस देवता रहते हैं। सूर्योदय से पूर्व अंधकार में आसुरी भाव बलवान रहता है। यही स्थिति सृष्टि पूर्व की भी है। ब्रह्माण्ड में केवल ऋताग्नि थी। इसमें ऋत सोम की आहुति से ही सत्याग्नि उत्पन्न हुई। सत्याग्नि ब्रह्मा (स्वयंभू) में सत्यसोम-विष्णु की आहुति से सूर्य उत्पन्न हुआ। भू केन्द्र से स्वयंभू केन्द्र को जोडऩे वाले खंभ के केन्द्र से सूर्य प्रकट हुए। इससे पूर्व अग्नियों (ऋक्-यजु:-साम) में दाहकता नहीं थी।

सूर्य तापधर्मा अग्नि पिण्ड है। अग्नि ही घनरूप में वसु, तरल रूप में यम, विरल रूप में आदित्य है। इसी प्रकार सोम भी क्रमश: आप-वायु-सोम है।

सूर्य में ताप के साथ प्रकाश (इन्द्र) भी रहता है। प्रकाश देवराज है। प्रकाश में असुर प्राण नहीं रहते। सूर्य के प्रकट होते ही अग्नि के कारण पृथ्वी जल उठी। यूं तो सभी पिण्ड प्राकृतिक स्वरूप में आग्नेय ही होते हैं। परन्तु सूर्य के ताप से भूपिण्ड जल उठा। जहां तक पृथ्वी दिखाई देती है, वह क्षेत्र पृथ्वी कहलाता है। यह क्षेत्र सूर्योदय से पूर्व शीतल था। अब यह रुद्र-क्षेत्र बन गया। इसी क्षेत्र में सोमवंशी विष्णु का भक्त अंग चन्द्रमा भी रहता है। जो स्वयं भी सोमपिण्ड होने से शीतल ही है। चन्द्रमा के भास्वर सोम से ही सूर्य और भूपिण्ड के स्वरूप की रक्षा होती है। अत: चन्द्रमा रूपी प्रह्लाद की जीवन रक्षा पहली आवश्यकता थी। वरन्, सूर्य एवं भूपिण्ड की अग्नि से उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता।

चन्द्रमा के तीन मनोता हैं- श्रद्धा, रेत, यश। इसके माध्यम से सृष्टि का रेत औषधियों (अन्न) में आता है। इसी स्थान पर (चन्द्रमा) हमारा पितर लोक भी माना गया है। मृत्यु के उपरान्त जीव पहले चन्द्रलोक में जाता है- तेरह माह में। आगे चन्द्रयान या सूर्ययान (मार्ग) से गति करता है। इसी प्रकार सृष्टि का कारक भी चन्द्रमा रूप विष्णु ही है। चन्द्र रेत ही अन्न के द्वारा शरीर में शुक्र उत्पन्न करता है। शुक्र ही प्रजा का उत्पादक कारक है। सोचा जा सकता है कि चन्द्रमा की भूमिका क्या है। चन्द्रमा की शिशु संज्ञ है, जो आकाश में पृथ्वी मर्यादा में रमण करता है। पृथ्वी ही भू-पिण्ड की गोद है, जिसमें यह शिशु-प्रह्लाद भ्रमण कर रहा है।

विष्णु सोम तत्व के अधिष्ठाता हैं। सोम भी घन-तरल-विरल रूप में आप्-वायु-सोम बन जाता है। ब्रह्मा माता और विष्णु पिता (आहुति द्रव्य) के यजन से ही सूर्य पिण्ड का निर्माण हेाता है। अग्नि पिण्ड पर सोमाहुति के कारण ही सूर्य में अग्नि का प्रज्वलन रहता है। वायुसोम से घन रूप आप् बादल बनकर वर्षा का रूप लेता रहता है। जैसे जैसे भूपिण्ड का तापमान बढ़ता है, वैसे वैसे वर्षा के जल से पृथ्वी को शीतल किया जाता है। इस अत्यधिक ताप का प्रभाव चन्द्रमा की भूमिका को प्रभावित नहीं कर पाता। जिस प्रकार सूर्य का ताप फैलता है, उसी प्रकार चन्द्रमा की शीतलता भी फैलती रहती है। दिन में भी चन्द्रमा का भ्रमण सूर्य के ताप को नियंत्रित करता रहता है।

इस प्रकार नृसिंह अवतार के दृष्टान्त से हम सृष्टि के एक महत्त्वपूर्ण रहस्य को खोल सकते हैं। कूर्म-वराह अवतार की तरह ही नृसिंह अवतार भी सूक्ष्म तात्विक महत्व के दृष्टान्त है। इनको राम और कृष्ण के समकक्ष रखकर तुलना नहीं की जा सकती। वे स्थूल रूप में – पूर्ण पुरुष – हमारे मध्य थे। विष्णु के अवतार तो हम सभी हैं। गीता इसका प्रमाण है। प्रत्येक प्राणी के समक्ष धर्म-अधर्म रहते हैं। प्रत्येक के भीतर विष्णु बैठे हैं। कौन किस संकल्प के साथ अधर्म से संघर्ष करता है, वही अवतार की परिभाषा में वैसे ही जुड़ा रहेगा। किन्तु विष्णु उपस्थित सब में है, बीजरूप में है। एक वृक्ष का उदाहरण देखें-

वृक्ष में यों तो असंख्य आरम्भक द्रव्य हैं। परन्तु मूल दृष्टि से मिट्टी, सौरताप, पानी और बीज ये चार उपादान हैं। बीज को भू-गर्भ में रखकर ऊपर से मिट्टी छोड़ दी जाती है। ऊपर से पानी डाला जाता है। बीज में ‘चत्वार आत्मा, द्वौ पक्षौ, पुच्छं प्रतिष्ठा’ के अनुसार- पक्ष स्थानीय दो वृंत्त रहते हैं, आत्म स्थानीय हृदय हैं, पुच्छ स्थानीय स्थिति तत्व है। स्थिति ब्रह्मा है। ‘ब्रह्म वै सर्वस्य प्रतिष्ठा।’ हृदय में अशनाया धर्मा विष्णुतत्व तथा अग्रभाग में रक्षक शिव तत्व (इन्द्र) प्रतिष्ठित है।

मध्यस्थ विष्णु, मूलस्थ ब्रह्मा के सहयोग से पार्थिव रस का आदान करते हैं एवं शिव के द्वारा सौररस का आदान करते हैं। पानी के सिंचन से विष्णु की स्वरूप रक्षा होती है। विष्णु आपोमयी परमेष्ठी के अधिष्ठाता हैं। हृदयस्थ तीनों शक्तियों का समन्वित रूप ही बीज है- एकामूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वरा:।

इस सूक्ष्म बीज के रक्षक बाहर दो वृंत हैं। रोदसी त्रिलोकी के अधिष्ठाता-आग्नेय रुद्रदेव-यमवृत्ति से इस बीज पर आक्रमण किया करते हैं। पाश्र्व स्थानीय वृंत ही बीज को इस आक्रमण से बचाते हैं। जब बीज को प्रवृद्ध शिववायु का साहचर्य मिल जाता है, तब वृंत ही गर्भीभूत बीज को कर्म में प्रवृत्त करते हैं। रुद्रवायु के इसी आक्रमण को रोकने के लिए पानी डाला जाता है। पानी शिववायु का सहचारी है। भूगर्भ में बीज वपन करते हुए पानी के सिंचन से जब शिववायु का साम्राज्य हो जाता है, तो रुद्रवायु के आक्रमण का भय जाता रहता है। तब दोनों वृंत प्रस्फुटित होकर देवत्रयमूर्ति (हृदय) को स्वव्यापार के लिए मुक्त करते हैं। ब्रह्मा के द्वारा विष्णु पार्थिव रस का आकर्षण करते हैं, शिव के द्वारा सौर रश्मियों को आगे कर सौररस का आदान करते हैं। पानी को शोषित करना सौर रश्मि का स्वाभाविक धर्म है। इसी लालसा से रश्मियां अब मिश्रित बीज में प्रविष्ट हो जाती हैं। पानी को लेकर रश्मियां ऊपर चढ़ती हैं। परन्तु पानी में मिट्टी घुली हुई है, अत: पानी के साथ-साथ मिट्टी भी ऊपर चढऩे लगती है। रश्मि के द्वारा पानी के साथ ऊपर उठा हुआ पार्थिव भाग ही बीज की पहली अंकुर अवस्था है। जब और पानी डाला जाता है। रश्मियां पुन: ऊपर खींचती हैं। मिट्टी भी ऊपर खिंचती चली जाती है। पानी वाष्प बनकर सौर मण्डल के गर्भ में चला जाता है, किन्तु पृथ्वी के आकर्षण के कारण मिट्टी जहां की तहां रह जाती है। इस क्रम से कालान्तर में बीज वृक्ष रूप में परिणत हो जाता है।

त्रिदेव लक्षण बीज में एक महानात्मा प्रतिष्ठित रहता है। यही आकृति-प्रकृति-अहंकृति का अधिष्ठाता है। नियत आकृति के अनुसार उसी आयतन पर जाकर वृद्धि रुक जाती है। चतुरशीति लक्षण आकृति भावों को अपने गर्भ में नियत रखने वाला महान् ही इस सम्बन्ध में अन्तिम नियन्ता है। वृक्षोत्पत्ति में यदि एक भी कारण न रहेगा, तो वृक्षोत्पत्ति नहीं होगी। व्यष्टि विज्ञान के एक कारण को कार्य के प्रति कारणता नहीं है, अपितु कारण समष्टि को ही कार्य के प्रति कारणता है। समष्टि विज्ञान के रूप में विश्व कार्य के प्रति एकमात्र ब्रह्म ही कारण है। यह एक कारणतावाद तथा अनेक कारणतावाद ही समष्टि/व्यष्टि विज्ञान के पार्थक्य का कारण है। प्रत्येक पदार्थ के आरम्भक द्रव्यों का नाम-रूप द्वारा व्याकरण कर उनका विभाग करना खण्ड विज्ञान है, इसका मूल आधार अखण्ड ब्रह्म का अखण्ड विज्ञान है। अखण्ड विज्ञानात्मक, ज्ञान युक्त खण्ड विज्ञान ही नित्य विज्ञान है। यही भारतीय विज्ञान की महत्ता है। खण्ड में अखण्ड, द्वैत में अद्वैत का साक्षात्कार करता है। ज्ञानसहित विज्ञान (कर्म) ही भारतीय के लिए उपादेय है, विज्ञानसहित ज्ञानयोग ही हमारा उपास्य है। वह कर्मशक्ति का उत्तेजक बनता हुआ आधिभौतिक योग है। ज्ञानशक्ति का विकासक बनता हुआ आधिदैविक योग है।

व्यष्टि रूप अवतार और समष्टि रूप अवतार भिन्न होते हैं। राम और कृष्ण समष्टि अवतार रहे हैं। सृष्टि में कृष्ण को तो कदम-कदम पर दिखाया गया है। अवतार रूप में जब भी विष्णु प्रकट होंगे, उनका यह उद्घोष साथ रहेगा-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
क्रमश:

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