सुदामा की झिझक समाप्त नहीं हो रही थी। बोले, ‘किंतु वे नरेश हैं सुशीला! हमें उनकी पद-प्रतिष्ठा का ध्यान तो रखना ही होगा न! तुम यह सब छोड़ दो, मैं यूं ही चला जाऊंगा।’ ‘मित्र का स्मरण करते हुए यदि उसकी सामथ्र्य पर ध्यान जाने लगे, तो मित्रता दूषित हो जाती है। भूल जाइए कि वे द्वारिकाधीश हैं, बस इतना स्मरण रखिए कि वह आपके वही मित्र हैं जिनके साथ आपने गुरुकुल के दिनों में भिक्षाटन किया था।’ ‘कैसी बातें करती हो देवी! वे बचपन के दिन थे। अब समय ने सब बदल दिया है…।’
‘समय सामान्य मनुष्यों को बदलता है, कृष्ण जैसे महानायकों को नहीं। वह एक शरीर के अंदर अनेक रूपों में विद्यमान हैं। वह जिससे जिस रूप में मिले, उसके लिए सदैव उसी रूप में रह गए। वह ब्रज की गोपियों के लिए अब भी माखनचोर हैं, नन्द-यशोदा के लिए अब भी नटखट बालक हैं, राधिका के लिए अब भी प्रिय सखा हैं। वह अर्जुन के लिए जो हैं, वह द्रौपदी के लिए नहीं हैं। वह गोकुल के लिए दूसरे कृष्ण हैं, द्वारिका के लिए दूसरे… हस्तिनापुर के लिए उनका रूप कुछ और है और मगध के लिए कुछ और। आप जा कर देखिए तो, वह आपको अब भी गुरुकुल वाले कन्हैया ही दिखेंगे। यही उनकी विराटता है, यही उनका सौंदर्य…।’ सुशीला ऐसे बोल रही थीं, जैसे कृष्ण सुदामा के नहीं, उनके सखा हों।
सुदामा मुस्करा उठे। बोले – ‘इतना कहां से देख लेती हो देवी?’ सुशीला ने हंस कर उत्तर दिया, ‘पुरुष अपनी आंखों से संसार को देखता है, और स्त्री मन से… धोखा तो दोनों ही खाते हैं, पर कभी बदलते नहीं।’ सुदामा ने पोटली उठाई, ईश्वर को प्रणाम किया और निकल पड़े… वह नहीं जानते थे कि द्वारिका में बैठा उनका कन्हैया आंखों में अश्रु लिए उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।