आदमी जैसा ढोंगी, छल-फरेबी, कृतघ्न, जालसाज, बेईमान, लम्पट, धोखेबाज जैसा जीव प्रकृति में दूसरा नहीं है। मनुष्य के अलावा जो भी जन्तु है वे अपने मूल स्वभाव पर जन्म से मृत्यु तक स्थिर रहते हैं। मसलन बिच्छू की आदत डंक मारने की है तो मारता ही है, चाहे आदमी उसका भला कर रहा हो या बुरा। लेकिन इंसान तो अपने भले करने वाले के ही जानबूझ कर डंक लगा देता है। इन दिनों आजादी के बड़े चर्चे हैं। जिसे देखो उसे आजादी चाहिए।
यूरोपियन यूनियन से निकल कर ब्रिटेन को आजादी चाहिए। ब्रिटेन से स्कॉटलैण्ड को आजादी चाहिए। इधर लंदन वाले कह रहे हैं कि लंदन एक आजाद देश बने। केजरीवाल दिल्ली को स्वतंत्र राज्य बनाना चाहते हैं। कश्मीर के अलगाववादी कथित आजादी की मांग करते ही रहे हैं। यह तो हुई देशों की बात। आजकल तो घरों में भी आजादी का बिगुल बज रहा है।
बेटे-बहुओं को बूढ़े मां-बाप से आजादी चाहिए। युवक-युवतियों को ब्याह रूपी संस्था से आजादी चाहिए। कहने को तो आज की पीढ़ी अपने आपको ‘आजाद’ कहती है लेकिन इनसे बड़े गुलाम हमने अपनी जिन्दगी में नहीं देखे। ये तो सामन्तकालीन बेगारों से भी बदतर जिन्दगी जी रहे हैं। आजकल ‘सॉफ्ट लेबर’ की बड़ी बातें की जा रही हैं। हार्ड लेबर का मतलब है धूप, गर्मी, वर्षा और ठंड में शारीरिक मेहनत। जैसे दिहाड़ी के मजदूर और रिक्शाचालक करते हैं। लेकिन चौखटी से किराए पर लाया मजदूर भी सुबह आठ बजे काम शुरू करता है और शाम चार बजे हाथ मुंह धो लेता है।
रिक्शेवाले या थ्री-व्हीलर चलाने वाले को जब नींद आती है तो वह चार सौ रुपए की सवारी छोड़ पैर पसार कर अपने वाहन में ही सो जाता है। दूसरी है सॉफ्ट लेबर। सॉफ्ट लेबर करने वाले वातानुकूलित कमरों में बैठते हैं, इनके लिए कॉफी मशीन लगी रहती है, वक्त-वक्त पर खाने-पीने की चीजें आती रहती हैं पर इनके काम के घंटे तय नहीं।
कोई चौदह घंटे काम करता है तो कोई सोलह। घर आकर भी काम में पिले रहते हैं। ये सूटबूट वाले अपने को मजदूर तो नहीं कहते पर इनकी स्थिति मजदूरों से भी बदतर है। हमें तो समझ ही नहीं आता कि चौदह घंटे कम्पनी में बिताने के बाद इस लड़के के पास घरेलू जिन्दगी जीने के लिए शक्ति बचती भी है या नहीं।
इनमें से ज्यादातर घर आकर या घर आने से पहले एक बीयर या दो पैग लगाते हैं, खाते हैं और पड़ जाते हैं। यह नजारा देख कर हमें अपनी जवानी याद आ जाती है। जब हम सुबह सात से एक बजे तक मास्टरी करके सारी लम्बी सांझे मस्ती करते हुए बिताते थे। बेशक हमें तनखा थोड़ी मिलती थी लेकिन सुकून चैन इतना था कि खर्च करने पर भी खर्च नहीं होता उल्टे बढ़ ही जाता था। ऐसे जी-तोड़ काम करने वालों को हम ‘गुलाम’ कहते हैं।
पैसे के गुलाम, वक्त के गुलाम, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के गुलाम और अपनी आदतों के गुलाम। पूंजीवाद की मीनार से बजती पूंपाड़ी का स्वर आने वाली पीढ़ी को सॉफ्ट गुलाम बना रहा है। इनसे तो भले हम हार्ड मजदूर ही थे जो सांझ को अपने संगीत गुरु मातादीनजी के मंदिर में बैठ कर भजन और गजल गाकर मस्त हो जाते थे। राही
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