ऐसे उदाहरण भी सामने आए हैं, जो देश-विदेश में चर्चित हुए हैं। जैसे कि ‘मधुबनी’ रेलवे स्टेशन, जहां मधुबनी शैली में ही समूचे स्टेशन पर, उसकी दीवारों पर अब मधुबनी चित्रों का वास है। याद करते चलेंगे तो आपके आसपास भी ऐसा कोई प्रयत्न घटित हुआ होगा। दिल्ली के मेट्रो स्टेशनों में तो अब चित्रों, छायांकनों आदि की प्रदर्शनियां आम बात हो गई है। इस काम में आर्ट कालेजों के छात्र-छात्राओं का सहयोग भी लिया जाने लगा है।
वैसे भी यह छवियों का युग है। आज हमारे आसपास दैनंदिन जीवन में छवियां ही छवियां हैं। इसीलिए यह और भी जरूरी है कि इन्हीं के बीच चित्र, शिल्प, म्यूरल, इंस्टालेशन (संस्थापन) आदि के रूप में कुछ भिन्न छवियां भी हों, जो हमारे सौंदर्य-बोध में इजाफा करें, एक अलग प्रकार की ‘कला दुनिया’ की ओर हमें ले जाएं। उनके माध्यम से कुछ कला-विचारों, कला-विमर्शों की सृष्टि हो। आंखों में एक अलग प्रकार की ‘ठंडक’ महसूस हो। रंगों और आकारों को लेकर हम ‘सजग’ हों। जिसे अंग्रेजी में ‘विजुअल कल्चर’ कहा जाता है, उस ‘चाक्षुष संस्कृति’ का सतत निर्माण हो।
देश में देखने-सराहने के लिए कला के असंख्य बेहतरीन नमूने हमेशा मौजूद रहे हैं। इनमें अजंता-एलोरा, खजुराहो, कोणार्क, सांची, महाबलिपुरम हैं, तो राजस्थान के संग्रहालयों के मिनिएचर चित्र भी। पर, बात समकालीन और आधुनिक की भी है। पिछले दिनों मन प्रसन्न हुआ एक फीचर पढक़र कि पिंडारी ग्लेशियर रूट के अंतिम गांव की दीवारों को, जहां बिजली भी नहीं है, कुछ कलाकारों ने म्यूरल-चित्रों से सजा दिया है – कुमाऊंनी शैली में।
पिछले दिनों ही इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के परिसर में एक संस्थापन भी देखा – नीम के पेड़ों पर डोरियों में मिट्टी की चिलमों को पिरोकर तैयार ‘बारिश दृश्य’ का। धूप-छांही आलोक में कुछ और, शाम-रात को बिजली की रोशनी में कुछ और। यह सौंदर्य-बोधी था। कभी उन्हें देख तिब्बती घंटियां याद आती हैं, कभी बंदनवार, झालरें।
ऐसी भांति-भांति की कलाकृतियों की बिंब-मालाएं सौंदर्य भूख भी मिटाती हैं। वे बनें, बढ़ें और दिखती रहें सभी जगह। समकालीन, आधुनिक भी।