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ओपिनियन

इस विकल्प के मायने

सिर्फ निजी क्षेत्र की राह आसान करने के इरादे से यदि सब्सिडी छोडऩे का विकल्प देने पर विचार किया जा रहा है तो उसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता…

जयपुरJul 11, 2019 / 01:45 pm

dilip chaturvedi

Subsidies issue

Subsidies issue

रसोई गैस के बाद अब रेलवे भी अपने यात्रियों को टिकट पर मिलने वाली सब्सिडी छोडऩे का विकल्प देने की तैयारी में है। यानी कोई यात्री चाहे तो टिकट पर मिलने वाली रियायत छोड़ सकता है। मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पहले ही एलान कर चुकी हैं कि रेलवे स्टेशनों को निजी कंपनियों को सौंपा जाएगा। कुछ रेल मार्गों तक भी इस निजीकरण का विस्तार किए जाने की चर्चा है। जाहिर है कि कोई भी कंपनी रियायती टिकट वाली व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेगी।

रेलवे टिकट पर वरिष्ठ नागरिकों समेत कई वर्गों में यात्रियों को निश्चित रियायत दी जाती है।?कहा तो यह जा रहा है कि रेलवे, यात्री परिवहन की मद में कुल लागत का 57 फीसदी ही टिकटों के जरिए निकाल पाता है। ऐसे में रसोई गैस की तरह ही सब्सिडी छोडऩे के विकल्प पर अमल करने पर विचार हो रहा है। रेलवे की यह सब्सिडी छोडऩे पर खास तौर से वातानुकूलित कोच में यात्रा महंगी हो सकती है। दरअसल टिकटों में यह सब्सिडी खुद रेलवे ही माल-भाड़े से होने वाली आय में से देता है। रेलवे ने वर्ष 2017 में भी वरिष्ठ नागरिकों के लिए यह स्कीम निकाली थी कि यदि वे चाहें तो टिकटों पर दी जाने वाली सब्सिडी लें या फिर इसे छोड़ दें। तब रेलवे को 78 करोड़ रुपए से अधिक की आय हुई थी।

रसोई गैस की सब्सिडी छोडऩे व रेलवे की टिकट सब्सिडी छोडऩेे में अंतर है। एलपीजी सिलेंडर की सब्सिडी छोडऩे वालों से ही निर्धन वर्ग तक गैस सिलेंडर पहुंचाया गया था। यहां सिर्फ वातानुकूलित टिकटों की श्रेणी में ही रेलवे को थोड़ा फायदा मिलता है अन्यथा प्रति किलोमीटर यात्रा पर वह यात्रियों से 38 पैसे लेता है। कोई स्वेच्छा से टिकटों पर रियायत नहीं लेना चाहे वह अलग बात है, लेकिन ऑनलाइन टिकट की बुकिंग कराने के दौरान किसी से अनजाने में भी यदि रियायत छोडऩे का विकल्प क्लिक हो जाए तो वह इसे वापस नहीं ले सकता।

रियायत छोडऩे का विकल्प देने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं होगी कि यात्री को कन्फर्म टिकट मिल ही जाएगा। पहले रेल यात्रा सुरक्षित और सुगम हो, इस दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए। सिर्फ निजी क्षेत्र की राह आसान करने के इरादे से यदि सब्सिडी छोडऩे का विकल्प देने पर विचार किया जा रहा है तो उसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता। आम तौर पर होता यही है कि आसान शर्तों पर सरकारी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में दखल देने वाली निजी कंपनियां बाद में अपनी शर्तें थोपने लगती हैं। रेलवे को ‘गिव इट अप’ अभियान में जागरूकता के नाम पर भी लाखों रुपए खर्च करने होंगे। रेलवे के पास काफी संपत्ति है। निजी क्षेत्र को रखरखाव के नाम पर आमंत्रित करने के बजाए सरकार खुद इस संपत्ति का निस्तारण कर यात्रियों के लिए सुविधाएं जुटाए तो बेहतर होगा।

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