शीर्ष अदालत ने तल्ख लहजे में पूछा कि संसद से पारित कानून को कोई राज्य चुनौती कैसे दे सकता है? अदालत ने यह भी कहा कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को अगर व्यक्तिगत रूप से कोई परेशानी है तो वह सामान्य नागरिक की हैसियत से अलग से याचिका दायर करें। अदालत ने यह भी सवाल उठा दिया कि संघीय व्यवस्था में कोई भी राज्य संसद से पारित कानून की खिलाफत कैसे कर सकता है? दूसरी तरफ मोबाइल नम्बरों को आधार से जोडऩे को चुनौती देने वाली एक व्यक्ति की अन्य याचिका पर भी अदालत ने केन्द्र सरकार को नोटिस जारी किया है।
देखने में आ रहा है कि पिछले कुछ समय से सरकारों के फैसले को अदालत में चुनौती देने की परिपाटी सी बनती जा रही है। अदालतों में अधिकांश याचिकाएं राजनीतिक कारणों से दायर की जाती हैं। अदालतें इन याचिकाओं के मकसद को समझती भी हैं, इसीलिए अनेक मौकों पर उन्हें तल्ख टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। ममता बनर्जी ने मोबाइल को आधार से जोडऩे को राजनीतिक मुद्दा बना लिया था। उन्होंने जनता से अपने फोन को आधार से नहीं जुड़वाने को कहा था।
यहां बात सिर्फ अकेले ममता बनर्जी या उनकी पार्टी की नहीं है। संसद में बनने वाला कोई भी कानून विचार-विमर्श के बाद ही बनता है। बहस के दौरान तमाम राजनीतिक दल अपने-अपने विचार भी रखते हैं। कई कानूनों का विरोध भी करते हैं। विरोध करने का उन्हें अधिकार है। लेकिन संसद से पारित किसी कानून को कोई सरकार चुनौती दे, यह संघीय अवधारणा के खिलाफ है। इसमें यह साफ जाहिर होता है कि राजनीतिक द्वेष के कारण राजनेता संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाने से कभी बाज नहीं आते। ऐसी प्रवृत्ति से तो देश में कोई कानून लागू कैसे हो पाएगा?