एक वाक्य में यह कि प्रदूषण के प्रहार से गंगा नदी पस्त है क्योंकि इसका सितार ध्वस्त है और गीत-संगीत संत्रस्त है। रुकावटों के ‘राहु’ और कठिनाइयों के ‘केतु’ से गंगा को ‘ग्रहण’ लग गया है। यह ‘ग्रहण’ उस गंगा नदी को लगा है जो भगवान विष्णु के पांव के नख, ब्रह्मा के कमंडल और भगवान शिव के शीश की जटाओं से धार, आकार और प्रकार पाती है। यह ‘ग्रहण’ उस गंगा नदी को लगा है जो ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मंगलवार के दिन हस्त नक्षत्र में स्वर्ग से अवतरित हुई थी। दशमी तिथि को अवतरित होने के कारण ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में गंगा दशहरा मनाया जाता है। ‘दशहरा’ का तात्पर्य है ‘दस’ पापों को ‘हरने’ वाला। गंगा दशहरा का शास्त्रीय महत्त्व यही है कि इस दिन गंगा नदी ‘स्नान/दान/ध्यान’ की त्रयी के फलस्वरूप दस पापों (तीन दैहिक, तीन मानसिक और चार वाचिक) का हरण करती है। लेकिन व्यावहारिक पक्ष यह है कि दस पापों यानी दस गंदगियों का हरण करने वाली इस गंगा को प्रदूषण के पिशाच की पैनी पकड़ से ‘गंदगी का ग्रहण’ लग गया है। सोचिए, कैसा लगेगा जब अपनत्व उपेक्षा में, उल्लास उपहास में, आनंद संत्रास में, प्रसन्नता अवसाद में और पवित्रता सड़ांध में बदलने लगे?
गंगा की पवित्रता के इस रूप में परिवर्तित होने की वजह हम हैं, केवल हम। हमने ‘संरक्षित’ करने की बजाय नदियों के प्रवाह को ‘बाधित’ किया। बाधित होने से गंगा व्यथित है। पतित पावनी गंगा तारक कैसे रह पाएगी, जब हम ही उसे मारक बनाने पर आमादा हैं। क्योंकि गंगा नदी के पानी में जहरीले रसायन भर गए हैं। तात्पर्य यह है कि उस गंगा नदी को ‘ग्रहण’ लग गया है जिसके लिए नारद पुराण के पूर्वभाग के छठे प्रकल्प अर्थात छठे अध्याय के 56वें श्लोक में कहा गया है: ‘नास्ति गंगा समं तीर्थं, नास्ति मातृसमो गुरु:।’ अर्थात ‘गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है और माता के समान कोई गुरु नहीं है।’
यह उस गंगा नदी को ‘ग्रहण’ लगा है जिसके लिए गोस्वामी तुलसीदास ने विनयपत्रिका के १९वें पद में कहा है: ‘हरनि पाप त्रिविध ताप सुमिरत सुरसरित। विलसित महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ फरित।।’ अर्थात ‘सुरसरित यानी गंगा के स्मरण मात्र से विविध पापों और त्रिविध तापों का हरण हो जाता है। जिस प्रकार से कल्प वृक्ष से मांगा जाए तो वह व्यक्ति के सारे मनोरथ पूर्ण कर देता है, उसी प्रकार गंगा व्यक्ति के मनोरथ को पूर्ण करके उसे मोद-आनंद से मुदित कर देती है।’
संतान को वरदान देने वाली मां गंगा स्वयं संतान से आज वरदान मांग रही है कि वह उसे अभयदान दे। कभी सबका मनोरथ पूर्ण करने वाली गंगा का मनोरथ क्या हम पूर्ण कर सकेंगे? क्या हम गंगा को प्रदूषण-मुक्ति का अभयदान दे सकेंगे ताकि ‘गुमसुम गंगा’ फिर से ‘हर्षित गंगा’ हो सके?