सबसे पहले तो शिक्षा और कुशलता का कोई विकल्प नहीं। किंतु कौशल सिर्फ विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नहीं मिलता। देश के ऐसे कितने प्रतिशत युवा हैं जो आधुनिक कोडिंग में सक्षम हैं? वेल्डिंग कितने युवा जानते हैं? रोचक वीडियो का सम्पादन करने में कितने युवा सक्षम हैं? ये कलाएं घर बैठे-बैठे सीखी नहीं जा सकतीं, और न ही व्याख्यान से इन कलाओं को सिखाना संभव है। जब तक हमारी शिक्षा संस्कृति में हाथों का प्रयोग कम और बातों का प्रयोग अधिक होगा, तब तक मूल्य सृजन हेतु उचित कौशल सीखना संभव नहीं। इसी कारण उद्योग और शिक्षा संस्थाओं के बीच और अधिक तालमेल, अत्यंत महत्वपूर्ण है। किंतु शिक्षा और कौशल ही काफी नहीं।
भारत के गांव भारत की बुनियाद हैं, शरीर की कोशिकाओं की तरह। किंतु गांवों के विकास के लिए कोशिकाओं के साथ-साथ, देश की धड़कन – देश के बड़े शहरों – पर भी ध्यान देना होगा। शहर और गांव के बीच कोई विरोधाभास नहीं, एक के बगैर दूसरे का विकास संभव नहीं। लेकिन कितनी बार आपने पटना, रांची, गुवाहाटी, रायपुर, प्रयागराज और भोपाल जैसे शहरों के वैश्विक स्तर पर विकास की चर्चा सुनी है? जब बात हिंदी प्रांतों की होती है, तो ग्राम विकास से आगे चर्चा ही नहीं होती। यह न सिर्फ आर्थिक रूप से अनुचित है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी। बनारस और पाटलिपुत्र जैसे शहरों का जन्म कहां हुआ, हम भलीभांति जानते हैं।
आवश्यकता है कि भारत के विकासशील प्रांत अपने शहरों और आर्थिक क्लस्टर्स पर ध्यान दें।