scriptExclusive: विकास का बुनियादी सिद्धांत है सतत मूल्य सृजन | The basic principle of development is sustainable value creation | Patrika News
ओपिनियन

Exclusive: विकास का बुनियादी सिद्धांत है सतत मूल्य सृजन

जरूरी है ग्रामीण और शहरी विकास में तालमेल, शहरी विकास गांवों के विकास के लिए भी जरूरी है, ताकि गांवों में आर्थिक अवसर बढ़े, और मूल्य सृजन की क्षमताओं में वृद्धि हो

नई दिल्लीSep 22, 2020 / 04:24 pm

shailendra tiwari

Nobody sees poor construction, Panchayat and Rural Development Department Kumbhakarni in his sleep

प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना का बुरा हाल

ग्रामीण विकास के नाम पर भारतीय सरकारें पिछले 73 वर्षों में न तो गांवों का विकास कर पाई हैं, और न ही देश का। भारत में ग्रामीण विकास और किसान सेवा सिर्फ चुनावी वादे बन गए, जहां बुनियादी आर्थिक सिद्धांत ताक पर रख दिए गए। ये बुनियादी सिद्धांत क्या हैं? विकास मूलभूत रूप से सतत मूल्य सृजन से होता है। यदि आप में ऐसी क्षमता है कि आपके द्वारा सृजित उत्पाद और सेवाएं दूसरों के लिए अधिक मूल्यवान हैं, तो आपने ही नहीं, पूरे देश ने विकास किया। यदि एक ग्वाला दूध के स्थान पर घी और मक्खन का उत्पादन कर सके, तो वह अधिक मूल्य सृजन करने में सक्षम होगा। लेकिन यह कैसे संभव हो?

सबसे पहले तो शिक्षा और कुशलता का कोई विकल्प नहीं। किंतु कौशल सिर्फ विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में नहीं मिलता। देश के ऐसे कितने प्रतिशत युवा हैं जो आधुनिक कोडिंग में सक्षम हैं? वेल्डिंग कितने युवा जानते हैं? रोचक वीडियो का सम्पादन करने में कितने युवा सक्षम हैं? ये कलाएं घर बैठे-बैठे सीखी नहीं जा सकतीं, और न ही व्याख्यान से इन कलाओं को सिखाना संभव है। जब तक हमारी शिक्षा संस्कृति में हाथों का प्रयोग कम और बातों का प्रयोग अधिक होगा, तब तक मूल्य सृजन हेतु उचित कौशल सीखना संभव नहीं। इसी कारण उद्योग और शिक्षा संस्थाओं के बीच और अधिक तालमेल, अत्यंत महत्वपूर्ण है। किंतु शिक्षा और कौशल ही काफी नहीं।
सोवियत यूनियन और उनसे प्रेरित पंडित नेहरू ने भी शिक्षा और कौशल पर बल दिया। किंतु साथ ही साथ आर्थिक स्वतंत्रता के स्थान पर एक विशालकाय और भयावह नौकरशाही को भी बल दिया जिससे उद्यमवृत्ति की कल्पना भी आम हिंदुस्तानी के जहन से निकल गई। अर्थव्यवस्था और धनोपार्जन राजनेताओं के कार्य बन गए, और कल्पना और उद्यम, नियमों और पदानुक्रम की भेंट चढ़ गए। कलकत्ता, विश्व की एक महत्वपूर्ण महानगरी, इसी कारण धीरे-धीरे ढलती गई, और कलकत्ता के साथ-साथ उसके आसपास की आर्थिक क्षमता भी। शिक्षा और कौशल के बावजूद भी मूल्य सृजन की क्षमता पर विराम लग गया। इसी कारण आर्थिक आजादी भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, ताकि हर व्यक्ति समाज में अपनी क्षमताओं के अनुसार योगदान कर सके, और धनोपार्जन की क्षमता कुछ राजनेताओं और पूंजीपतियों के हाथ में न हो।

भारत के गांव भारत की बुनियाद हैं, शरीर की कोशिकाओं की तरह। किंतु गांवों के विकास के लिए कोशिकाओं के साथ-साथ, देश की धड़कन – देश के बड़े शहरों – पर भी ध्यान देना होगा। शहर और गांव के बीच कोई विरोधाभास नहीं, एक के बगैर दूसरे का विकास संभव नहीं। लेकिन कितनी बार आपने पटना, रांची, गुवाहाटी, रायपुर, प्रयागराज और भोपाल जैसे शहरों के वैश्विक स्तर पर विकास की चर्चा सुनी है? जब बात हिंदी प्रांतों की होती है, तो ग्राम विकास से आगे चर्चा ही नहीं होती। यह न सिर्फ आर्थिक रूप से अनुचित है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से भी। बनारस और पाटलिपुत्र जैसे शहरों का जन्म कहां हुआ, हम भलीभांति जानते हैं।
आवश्यकता है कि भारत के विकासशील प्रांत अपने शहरों और आर्थिक क्लस्टर्स पर ध्यान दें।
शहरी विकास गांवों के विकास के लिए भी जरूरी है, ताकि गांवों में आर्थिक अवसर बढ़े, और मूल्य सृजन की क्षमताओं में वृद्धि हो। यदि गांव भारत की क्षमता हैं, तो शहर भारत के अवसर। इनके बीच तालमेल बैठाना आवश्यक है। जहां कौशल विकास की योजनाओं को हमें गांव-गांव तक पहुंचाना है, वहीं शहरी विकास कर भारत के हर प्रांत में आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ाना है। इनके बीच कोई द्वंद्व नहीं, और गांव, शहर, भारत, और विश्व, सभी एक ही स्रोत से जुड़े हैं।

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