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नजरिया : बदलता विश्व परिदृश्य केवल रूस-यूक्रेन युद्ध तक ही सीमित नहीं

रूस ने कहा है कि वह ऐसी परिषद का सदस्य नहीं बने रहना चाहता, जिस पर एक गुट का एकाधिकार हो और वह इसका इस्तेमाल अपने लाभ के लिए करता हो। इस पर ब्रिटेन ने कहा कि यह तो ठीक वैसी ही बात है कि अगर किसी को बर्खास्त किया जा रहा हो, वह इस्तीफे की पेशकश करे।

Apr 11, 2022 / 06:36 pm

Patrika Desk

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नजरिया : बदलता विश्व परिदृश्य केवल रूस-यूक्रेन युद्ध तक ही सीमित नहीं

करेन डी यंग
पत्रकार

संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस को मानवाधिकार परिषद से निलम्बित करने पर मतदान हुआ। इससे एक तथ्य पूर्णत: स्पष्ट हो गया कि बदलता विश्व परिदृश्य यूक्रेन में रूस पर युद्ध अपराधों के आरोप लगाने तक ही सीमित नहीं है, उससे काफी आगे निकलता दिखाई देता है। एक ओर संयुक्त राष्ट्र के करीब आधे से अधिक सदस्यों यानी 95 देशों ने अमरीका व दर्जनों अन्य देशों द्वारा समर्थित प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। इसमें नाटो और यूरोपीय संघ के सभी सदस्य देश, कुछ छोटे द्वीपीय देश और कई लैटिन अमरीकी देश शामिल हैं।
मतदान के साथ ही संयुक्त राष्ट्र में अमरीकी राजदूत लिंडा थॉमस ग्रीनफील्ड ने कहा कि ‘अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने मिलकर सही दिशा में सही कदम उठाया है।Ó इसे महत्त्वपूर्ण व ऐतिहासिक क्षण बताते हुए उन्होंने कहा कि इससे कड़ा संदेश जाता है कि पीडि़तों और युद्ध में बचे लोगों की पीड़ा की अनदेखी नहीं की जाएगी। गौरतलब है कि इस प्रस्ताव पर पक्ष में हुआ मतदान गत बार रूस के खिलाफ यूक्रेन पर आक्रमण के लिए लाए गए निंदा प्रस्ताव पर मतदान से कम रहा। गौरतलब है कि गुरुवार के प्रस्ताव के विपक्ष में 24 देशों ने वोट डाले। इन 24 देशों में शामिल हैं-चीन, ईरान, वियतनाम, अल्जीरिया, इथियोपिया, मध्य एशिया का अधिकांश हिस्सा और क्यूबा। ये सब पिछले मतदान में अनुपस्थित थे। चीनी प्रतिनिधि ने कहा, ‘हम मानवाधिकार से जुड़े मुद्दों के राजनीतिकरण का कड़ा विरोध करते हैं।Ó सबसे महत्त्वपूर्ण यह रहा कि जो 58 देश मतदान से अनुपस्थित थे, उन्होंने किसी भी पक्ष का साथ देना नहीं चुना। कुछ पर्यवेक्षकों के विचार से यह संयुक्त राष्ट्र का महत्व कम करने के समान है। इन देशों में शामिल हंै, कुछ मुट्ठी भर अफ्रीकी देश और पूरी फारस की खाड़ी। कई अनुपस्थित देशों ने यूक्रेन में जो कुछ हुआ, उसकी कड़ी निंदा की है। लेकिन, इसके लिए दोनों पक्षों में से किसी एक को जिम्मेदार ठहराने को लेकर संदेह भी जताया। ज्यादातर देशों ने फैसला लेने में हिचकिचाहट दिखाई। वे प्रताडऩा और निर्दोष नागरिकों की हत्या के आरोपों की जांच पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं। इस संबंध में अन्य जांचें पहले ही शुरू हो चुकी हैं। निंदा प्रस्ताव के पक्ष में वोट करने वाले सिंगापुर के प्रधानमंत्री ने कहा ‘बूचा से हाल ही मिली खबरें और तस्वीरें चिंताजनक हैं।Ó मतदान से अनुपस्थित रहने का कारण उन्होंने बताया कि मानवाधिकार परिषद ने पहले ही कथित मानवाधिकार उल्लंघन मामलों की जांच शुरू कर दी है और सभी देशों से अपील की है कि वे इसमें सहयोग करें। जो देश अनुपस्थित रहे, उनमें से कई घरेलू स्तर पर मानवाधिकार समस्याओं से जूझ रहे हैं। उनका तर्क था कि इससे गलत परम्परा पड़ेगी और पहले से चल रही खराब स्थिति ज्यादा बदतर हो जाएगी। पिछले महीने के प्रस्ताव का समर्थन करने वाले सऊदी अरब ने रूस के निलम्बन को ‘परिषद के कार्य का राजनीतिकरणÓ करार दिया है। रूस के उपराजदूत गेनाडी कुजमिन ने प्रस्ताव को मानवाधिकार के उपनिवेशवाद की संज्ञा दी है। साथ ही, यह भी कहा कि ‘असल में यह अमरीका की छोटे देशों की कीमत पर अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अपना प्रभुत्व मजबूत बनाए रखने की कोशिश है। मानवाधिकार परिषद का इतिहास परेशानियों भरा रहा है। उस पर अरसे से ऐसे गंभीर आरोप लगाए जाते रहे हैं कि उस पर किसी एक पक्ष का साथ देने का दबाव है।
क्यूबा के प्रतिनिधि ने निलंबन प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा, ‘आज रूस था, लेकिन कल यह हमारा कोई भी साथी हो सकता है। क्या यह सभा किसी दिन मानवाधिकार परिषद में संयुक्त राज्य अमरीका की सदस्यता को निलंबित करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर सकती है? हम सभी जानते हैं कि ऐसा नहीं हुआ है और न ही होगा।Ó
गौरतलब है कि मानवाधिकार आयोग पर अक्सर पक्षपात के आरोप लगते रहते हैं। इस परिषद के स्थापना प्रस्ताव में कहा गया है कि सभी सदस्य मानवाधिकारों की प्रगति एवं रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध होंगे। इसमें मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी सदस्य के निलम्बन प्रक्रिया भी बताई गई है। 2011 में इसी प्रक्रिया का अनुकरण कर लीबिया को निलम्बित किया गया था। सरकार विरोधी प्रदर्शनकारियों पर मुअम्मर गद्दाफी की हिंसक कार्रवाई के मद्देनजर यह कदम उठाया गया था। कई छोटे और कम शक्तिशाली देश मानते हैं कि परिषद ने उन्हें ऐसा मंच उपलब्ध करवाया है, जहां वे अमरीका जैसी बड़ी ताकतों के खिलाफ खड़े हो सकते हैं। अमरीका की उत्तरोत्तर सरकारों ने इजरायल और फिलीस्तीन के मामले में जो रवैया अपनाया, वह सबके सामने है। इससे अन्य देशों में अमरीका के प्रति आक्रोश बढ़ा। साथ ही, वे उन देशों की आलोचना से कतराने लगे, जिनका अमरीका विरोध करता आया है।
वर्ष 2018 में राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने अमरीका को अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से अलग करने के प्रयास में परिषद से सदस्यता वापस ले ली थी। मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन ने परिषद की सदस्यता फिर से ले ली। उनका तर्क था कि संस्था का सदस्य रहते हुए अमरीका अधिक प्रभावशाली रहेगा। रूस के अलावा भी कई देश ऐसे हैं, जिन्हें अमरीका ने समस्याग्रस्त राष्ट्र की श्रेणी में डाला है, जैसे इरिट्रिया, क्यूबा और चीन।
मतदान खत्म होने पर रूस ने कहा कि वह ऐसी परिषद का सदस्य नहीं बने रहना चाहता, जिस पर राष्ट्रों के किसी एक गुट का एकाधिकार हो, जो इसका इस्तेमाल अपने अल्पकालिक लाभ के लिए करते हैं। रूस ने पहले ही परिषद् से इस्तीफा दे दिया। इस पर ब्रिटेन ने कहा यह तो ठीक वैसा ही है कि अगर किसी को बर्खास्त किया जा रहा हो, वह उसके बदले में इस्तीफे की पेशकश करे। इसमें उम्मीद की किरण देखते हुए ब्रिटिश राजनयिक ने कहा कि निलम्बन से एक सीट खाली होगी तो नए चुनाव की संभावना बनेगी। और नए सदस्य को अवसर मिलेगा, जो उस सीट पर आने के लिए मानवाधिकारों को प्रोत्साहन देगा।

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