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बिन आडवाणी चुनाव!

राम रथयात्री का चुनावी परिदृश्य से ओझल हो जाना प्रतीक है नए युग की शुरुआत और आडवाणी वाले युग के अंत का। राजनीति की नई पीढ़ी इसे स्वीकार चुकी है।

जयपुरMar 25, 2019 / 03:28 pm

dilip chaturvedi

lk advani

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इस बार के लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की सक्रिय उपस्थिति के बिना होंगे। भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की जो पहली सूची जारी की है, उसमें गांधीनगर सीट से लालकृष्ण आडवाणी की जगह अमित शाह का नाम घोषित किया है। आडवाणी इस निर्वाचन क्षेत्र से 1998 से चुनाव जीतते आ रहे थे, लेकिन पार्टी ने इस बार उन्हें फिर मौका नहीं दिया है। बीजेपी को केंद्र में सत्ता तक पहुंचाने का रास्ता बनाने में उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अयोध्या में राम मंदिर बनाने के वास्ते समर्थन जुटाने के लिए रथयात्रा निकाल कर आडवाणी ने अपनी पार्टी के लिए जो जनाधार तैयार किया, वही बाद में जाकर नरेंद्र मोदी की राजनीति में बड़ी छलांग और उनके प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने का सबब बना। इसके पहले भी उन्हीं के बनाए आधार पर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी। उन्हें फिर से टिकट नहीं देने से लगता है अब उनकी पार्टी को लोकसभा में भी उनकी जरूरत नहीं रह गई है।

उम्र के 92 बसंत देख चुके आडवाणी अब उस स्थिति में भी नहीं हैं जो सक्रिय रूप से प्रचार अभियान चला सकें। इन चुनावों में उनके न होने पर स्वाभाविक तौर पर अलग-अलग नजरिये से विश्लेषण किया जाएगा। अनेक लोग कहेंगे कि नए मोदी-उत्साह में रंगी पार्टी ने उन्हें जान-बूझकर नजरअंदाज किया है क्योंकि बीजेपी के लिए वे जो कुछ कर सकते थे, कर चुके और उनकी अहमियत उस परिवार के मुखिया की तरह रह गई जिसकी अगली पीढ़ी के लोग सयाने हो कर अपने फैसले खुद लेने लगे हों। लेकिन कुछ लोग उनके धीरे-धीरे हाशिये पर चले जाने को यदि स्वाभाविक बदलाव मानेंगे तो वह भी गलत नहीं होगा। इसे बीजेपी की बागडोर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ में जाने के तौर पर देखा जा सकता है। इसे एक युग के अंत के रूप में भी देखा जा सकता है। अब दुनिया बदल गई है। नए जमाने में किसी की जरूरत उसके वापस कुछ दे सकने की क्षमता से ही आंकी जाती है। भावनाओं की वहां कोई जगह नहीं होती। नेतृत्व के तौर-तरीके तक बदल गए हैं। इसीलिए नए रंग में रंगी पार्टी आडवाणी को अपना मार्गदर्शक बनाए रखते हुए भी उनके लिए किसी संवैधानिक पद का दरवाजा नहीं खोल सकी।

बीजेपी ने गांधीनगर लोकसभा सीट पर आडवाणी के स्थान पर अपने अध्यक्ष अमित शाह को प्रत्याशी बना कर इस संसदीय क्षेत्र की अहमियत को बनाए रखा है और परोक्ष रूप से आडवाणी की अहमियत को स्वीकार किया है। भले ही शाह की शख्सियत आडवाणी की बुलंदी को नहीं छूती, मगर उछाल लेती पार्टी के अध्यक्ष के रूप में उनका रूतबा कम नहीं है। आडवाणी ने राजनीति में एक लम्बी पारी खेली है। मगर पिछले काफी समय से वे सक्रिय राजनीति के परिदृश्य से दूर बने हुए थे और उनकी पारी ढलान पर थी। नई परिस्थिति में वे किस प्रकार व्यवहार करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। बहुतों की उनसे यह अपेक्षा, कि वे इससे नाराज होंगे और उसकी सार्वजनिक प्रतिक्रिया देंगे, शायद पूरी नहीं होगी। देश में जिस प्रकार का ध्रुवीकरण आडवाणी ने दृढ़ता के साथ रथयात्रा से किया, उसे देखते हुए उनके समर्थक ऐसी अपेक्षा कर सकते हैं। कहते हैं किसी का कद उसके वक्त से जुड़ा होता है। वक्त के बदलने से चीजें बदल जाती हैं। और अब वक्त बदल गया है। ये लोकसभा चुनाव अमित शाह की अध्यक्षता में हो रहे हैं, इसलिए इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनकी भूमिका अहम भूमिका रहने वाली है। राम रथयात्री का चुनावी परिदृश्य से ओझल हो जाना प्रतीक है एक नए युग की शुरुआत और आडवाणी वाले युग के अंत का। और इस बात का भी कि पुराने जमाने के नेताओं का समय अब पूरा हो चला है। इसे राजनीति की नई पीढ़ी तो स्वीकार कर चुकी है।

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