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हालात भांपें, अभी से करें तैयारी

अकेले नहीं आता अकाल। पानी, प्रकृति और समाज के देशज चिंतक अनुपम मिश्र की
इस बात में काफी गहराई है। कुदरत सूखा देती है, अकाल नहीं

Sep 24, 2015 / 10:06 pm

शंकर शर्मा

Opinion news

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प्रो. योगेन्द्र यादव सीएसडीएस
अकेले नहीं आता अकाल। पानी, प्रकृति और समाज के देशज चिंतक अनुपम मिश्र की इस बात में काफी गहराई है। कुदरत सूखा देती है, अकाल नहीं। हर चौथे-पांचवे साल हमारे देश में बारिश की कमी होती है। लेकिन जरूरी नहीं कि इससे अन्न की कमी हो, पीने के पानी का संकट हो, इंसानों और मवेशियों की जान पर बन आए, खेती-किसानी से जुड़े हर वर्ग में हाहाकार मच जाए। यह तभी होता है जबकि समाज और सरकार सूखे के लिए तैयार न हो।

अकाल से पहले आता है विचारों का अकाल, स्मृति का अकाल, भावनाओं का अकाल इसीलिए वे कहते हैं ” अकेले नहीं आता अकाल”। आज देश भयानक सूखे से गुजर रहा है। सरकारी हिसाब से सूखा तब कहलाता है जब मानसून की बारिश औसत से 10 फीसदी या इससे भी कम रहे। फिर इसका असर देश के 20 फीसदी या ज्यादा इलाके पर पड़े। पिछले हफ्ते हुई बारिश के बावजूद अब तक इस मानसून में औसत से 14 फीसदी कम पानी पड़ा है। देश की 38 फीसदी जमीन बारिश की भारी या भयंकर कमी का शिकार है। अब मानसून जाने वाला है और इस आंकड़े में ज्यादा बदलाव की गुंजाइश नहीं बची है यानी सूखा आ चुका है, बस सरकारी घोषणा का इंतजार है।

सौ साल में तीसरी बार

यह साधारण सूखा नहीं है। लगातार दूसरे साल सूखा पड़ रहा है। पिछले सौ साल में सिर्फ तीसरी बार ऎसा हो रहा है कि लगातार दो साल देश भर में सूखा पड़ा हो। कुल 641 में से 287 जिलों पर सूखे की मार है। करीब सौ जिले ऎसे हैं जो पिछले छ: साल से लगातार बारिश की कमी का शिकार हैं। ज्यादातर इलाकों में फसल बुवाई के समय तो बारिश हो गयी, और उससे उत्साहित किसान ने फसल में खर्च भी कर दिया। लेकिन, पौधा निकलते-निकलते बारिश बंद हो गयी, फसल सूख गई। सूखे की सबसे बुरी मार उन इलाकों पर पड़ रही है, जहाँ औसत बारिश कम होती है और जो सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर हैं।

यूं तो केरल, कोंकण, नगालैंड और मिजोरम में भी औसत से कम बारिश हुई है लेकिन इन इलाकों पर कुदरत की मेहर है, औसत से कम बारिश भी बहुत है। कमी पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी है। लेकिन, वहां सिंचाई के दूसरे साधन उपलब्ध हैं इसलिए एकदम संकट नहीं आएगा।

असली संकट उस सूखी पट्टी में है जो उत्तर कर्नाटक से शुरू होकर तेलंगाना, मराठवाड़ा, मध्य महाराष्ट्र, पूर्वी मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश होते हुए एक तरफ उत्तरी बिहार और दूसरी तरफ पूर्वी राजस्थान और दक्षिणी हरियाणा की ओर जाती है। संकट का एक केंद्र मराठवाड़ा है। पिछले दस दिनों में हालत कुछ सुधरे हैं, नहीं तो पीने के पानी और मवेशियों के चारे के संकट से हाहाकार मच रहा था। अब भी संकट टला नहीं है, भूजल स्तर में काफी गिरावट आ गई है और एक फसल तो मर ही चुकी है।

मुआवजे की तैयारी
संकट का दूसरा केंद्र उत्तर प्रदेश है, जिसके बारे में कोई चर्चा ही नहीं है। इस वक्त देश के 29 जिले भयंकर सूखे का शिकार हैं यानी जहाँ औसत से 60 फीसदी या और भी कम बारिश हुई है। इनमे से 16 जिले उत्तर प्रदेश में है। ये जिले बुंदेलखंड, उससे जुड़े दोआब क्षेत्र में कौशाम्बी से आगरा तक की पट्टी और प्रदेश में पूर्वोत्तर में स्थित है। पिछले कुछ हफ्तों में स्थिति बद से बदतर होती गई है। किसान बारिश की कमी बोरवैल से पूरी करना चाहता है लेकिन बिजली नहीं मिलती। देश सूखे की आपदा से गुजर रहा है लेकिन सरकार और शहरी समाज बेखबर है।

खरीफ की फसल को बहुत नुकसान हुआ है लेकिन सरकार निश्चिन्त है कि उसके पास खाद्यान्न के भंडार भरे पड़े हैं। सरकार को पैदावार से मतलब है, उत्पादक से नहीं। अब तक केंद्र सरकार ने एक औपचारिक घोषणा की है कि सूखाग्रस्त जिलों में मनरेगा के तहत रोजगार के दिन 100 से बढ़ाकर 150 कर दिए जाएंगे। न पीने के पानी की विशेष व्यवस्था हो रही है, न पशुओं के दाना-पानी की और न ही फसल के नुकसान के मुआवजे की तैयारी दिख रही है। सरकार मानसून की औपचारिक समाप्ति का इंतजार करेगी, फिर मंत्रालय से पटवारी तक सूखे की जानकारी मांगी जाएगी, फिर पटवारी से मंत्रालय तक फाइल वही सूचना भेजेगी जो सबको पता है। फिर राज्य सरकारें केंद्र के पास गुहार लगाएंगी और फाइलें रेंगती रहेंगी, अकाल फैलता रहेगा।

यह है राष्ट्रव्यापी संकट

मीडिया भी बेपरवाह लगता है। मराठवाड़ा के बारे में कुछ खबरें आई हैं, बाकी कुछ नहीं। वो तो भला हो नाना पाटेकर का, नहीं तो उतनी खबर भी नहीं आती। शहरों में रहने वाले, टीवी देखने वाले “जागरूक” नागरिक को पता भी नहीं है कि देश इतने बड़े संकट से गुजर रहा है। गांवों में अपने इलाके के सूखे की खबर तो है लेकिन राष्ट्रव्यापी संकट का अहसास नहीं है। जब तक सूखा टीवी पर नहीं दिखेगा तब तक सरकार और प्रशासन को कोई चिंता नहीं होगी। सड़क पर पड़ा कोई व्यक्ति मर रहा है और हम सब उसे अनदेखा कर अपनी-अपनी कार के शीशे चढ़ाये चले जा रहे हैं।

सुकाल में बदलें अकाल

यही वह अकाल है जिसकी ओर अनुपम मिश्र इशारा कर रहे हैं। सूखा कुदरत ने दिया है लेकिन संवेदना का अकाल हमारा अपना पैदा किया हुआ है। अनुपम जी पिछले तीन दशक से पानी के सवाल पर विचारों के अकाल पर भी हमारा ध्यान खींचते रहे हैं। उन्होंने बताया है कि आधुनिक विकास और सिंचाई के नाम पर हमने जल संचय के उन तमाम साधनों और विधियों का नाश कर दिया है जिससे हमारा देश सदियों से सूखे का सामना करता था।

इस बार का भयानक सूखा अवसर है यह साबित करने का कि खेत भले ही सूखे हों, हमारा दिल और दिमाग अभी नहीं सूखा, हमारी आँखों में अब भी पानी है। इस सूखे को अकाल नहीं बनने देंगे हम। इस आपदा में किसान अकेला नहीं पड़ेगा। इस सूखे को अकाल नहीं सुकाल में बदल सकते हैं हम।

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