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सशक्त शहरी सरकारों के लिए काम करने का वक्त

बदहाल शहर: हमें एक राष्ट्रीय डैशबोर्ड की जरूरत है, जिस पर जनता देश भर से सड़क, पानी, बिजली, प्रदूषण जैसी जानकारियां साझा करें। साथ ही इसमें उन अधिकारियों के सम्पर्क की जानकारी दी जाए, जो इन सुविधाओं के लिए जवाबदेह हैं। सड़क, नालियां, पानी और शुद्ध हवा चाहिए, तो नागरिकों को भी जागरूक होना पड़ेगा।

Dec 07, 2021 / 10:26 am

Patrika Desk

urban governments

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प्रो. प्रतीक राज
(स्ट्रेटेजिक एरिया, आइआइएम, बेंगलूरु)


मैं बेंगलूरु की उतार-चढ़ाव व धूल भरी सड़कों से त्रस्त हूं। दो साल पहले जिन मुख्य सड़कों की मरम्मत शुरू हुई थी, वहां अब भी ‘कार्य प्रगति पर’ है। हर बारिश में इनकी हालत और खराब हो जाती है। यह केवल बेंगलूरु के हालात नहीं हैं। दिल्ली भी प्रदूषित है। इस दिशा में कोई कदम न उठाना सामूहिक आत्महत्या के समान है। बाकी बड़े शहरों, जैसे मुंबई में बाढ़ आना आए दिन की बात है। रांची जैसे छोटे शहरों में बिजली भी नियमित तौर पर नहीं आती। जनता से कर लिए जाते हैं, वह पैसा जाता कहां है?

सवाल यह है कि भारतीय शहर इतने खराब क्यों हैं? भारतीय शहरों में कोई सरकार नहीं है, जवाबदेह महापौर नहीं है और सशक्त नगर परिषद नहीं है। मुख्यमंत्री के पास ऐसे प्रांत की सरकार चलाने का जिम्मा होता है, जिसका आकार कई बड़े देशों के बराबर है। शहर कल्याण उनके लिए बाकी मुद्दों जैसा ही एक मुद्दा है, जिसके लिए उनके पास मंत्रियों का पूरा जाल है और विभिन्न प्रमुखों वाली एजेंसियां हैं। आम तौर पर जवाबदेही किसकी है, यही स्पष्ट नहीं होता। भारत में शासन की समस्या व्यवस्थागत है। भारतीय लोकतंत्र की अवधारणा शहरों को ध्यान में रख कर नहीं बनाई गई। हालांकि नगर व ग्राम सरकारें, विकेंद्रीकरण(1993 के सुधारों) के आधार पर बनाई गई हैं, लेकिन इनके पास अधिकार नाम मात्र के हैं। हमें नहीं मालूम कि बड़े शहरों के महापौर कौन हैं? दिल्ली में स्थानीय स्वायत्तता की बात हो रही थी, वह भी पिछले कुछ वर्षों से अटक गई है, क्योंकि केंद्र व दिल्ली सरकार के बीच सत्ता की लड़ाई चल रही है। विडम्बना यह है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में केंद्रीकरण की तरफ रुझान बढ़ रहा है। निरंकुश देश माना जाने वाले चीन में स्थानीय सरकारों को ज्यादा अधिकार मिलते हैं और स्थानीय अधिकारियों की तरक्की के रास्ते खुलते हैं, अगर वे उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हैं।

विश्व के लगभग सभी शहरों में महापौर होते हैं, जिनके पास शहर की जनता पर कर लगाने, पुलिस और विकास परियोजनाओं के प्रबंधन का अधिकार है। भारतीय शहरों को भी ऐसी स्थानीय सरकारों की दरकार है, जिनके पास ज्यादा अधिकार हों। कार्य शक्तियां ऐसे अधिकारियों के हाथ में नहीं होनी चाहिए, जिनका हर कुछ साल बाद स्थानांतरण हो जाता हो। स्थानीय सरकार प्रभावी होगी, तो ही राजनेता काम कर पाएंगे। हमारे शासन तंत्र में ऐसी विकेंद्रीकृत व्यवस्था कभी नहीं रही। इसके दो कारण हैं-पहला, सत्ता के ढांचे का नया स्तर बनाना राजनीतिक मसला हो जाता है। क्या मुख्यमंत्री संसाधनों से संपन्न शहर का मालिक किसी महापौर को बनाना पसंद करेंगे? इससे शहर में सत्ता के दो केंद्र बन जाएंगे। क्या नौकरशाही ऐसे विकेंद्रीकरण को मंजूर करेगी, अगर चयनित शहरी सरकारें उनकी शक्तियां कम कर दें। इसीलिए शहरी सुशासन के लिए सुधारों की बातें कम सुनाई देती हैं। इसकी शुरुआत जमीनी स्तर पर होनी चाहिए। यह चिंता भी है कि अनुशासित नौकरशाही के बिना शहरी सरकारें स्थानीय अल्पसंख्यकों और वंचित वर्ग के अधिकारों जैसे संविधान के मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा नहीं कर पाएंगी। ऐसी शहरी सरकारें विकेंद्रीकरण की उपयुक्त इकाइयां हो सकती हैं, जो संवैधानिक मूल्यों की पालना भी सुनिश्चित करें।

हालांकि जब तक ऐसा नहीं होता नागरिकों के पास एक और विकल्प है- आंकड़े और पारदर्शिता। हमें एक राष्ट्रीय डैशबोर्ड की जरूरत है, जिस पर जनता देश भर से सड़क, पानी, बिजली, प्रदूषण जैसी जानकारियां साझा करें। साथ ही इसमें उन अधिकारियों के सम्पर्क की जानकारी दी जाए, जो इन सुविधाओं के लिए जवाबदेह हैं। इस प्रकार के आंकड़ों से लैस नागरिक अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर ज्यादा मांगें करेंगे। अगर सरकार से नहीं तो कम से कम न्यायपालिका से। वैसे, मीडिया को यह काम करना चाहिए, लेकिन जब तक मीडिया इस ओर ध्यान नहीं देता, नागरिकों को स्वयं स्थिति संभालनी होगी। पारदर्शिता, भागीदारी और विश्वसनीयता अच्छी शहरी सरकार के तीन स्तम्भ हैं। अगर हमें अच्छी सड़कें, नालियां, पानी और हवा चाहिए, तो हमें ही इसके लिए प्रयास करने होंगे।

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