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ट्रैवलॉग : प्लितवित्स नेशनल पार्क- विश्व धरोहर भी, पर्यटन को प्रोत्साहन भी

ट्रैवलॉग-अपनी दुनिया : ऐसे में सवाल उठता है कि भारत के जंगल और उद्यान, राष्ट्रीय स्मारकों और पर्यटन के बीच खींचतान क्यों? क्यों ये सब एक साथ बैठ कर बात नहीं करते और अदालत में आमने-सामने आने को बेचैन रहते हैं? जिस देश के प्रधानमंत्री पर्यटन में खासी रुचि रखते हों, वहां प्लितवित्स जैसी कहानी क्यों नहीं लिखी जा सकती?

Nov 30, 2021 / 12:48 pm

Patrika Desk

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तृप्ति पाण्डेय
(पर्यटन एवं संस्कृति विशेषज्ञ)

पिछले कुछ हफ्तों में जब जयपुर के नाहरगढ़ को लेकर पुरातत्व, पर्यटन और वन विभाग की आपसी खींचतान के समाचार पढ़े तो सालों पहले की एक अनूठे स्थल की अपनी मन लुभावनी यात्रा याद आ गई। जगह थी प्लितवित्स नेशनल पार्क। प्लितवित्स पहले यूगोस्लाविया की शान था, अब क्रोएशिया की शान है। देश बदल गया, नहीं बदला तो प्लितवित्स का विश्व धरोहर का ओहदा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता।


विश्व पर्यटन संघ ने जिस कार्यक्रम का आयोजन कर हमें वहां पहुंचने का अवसर दिया था वह पर्यटन और पर्यावरण के बीच संतुलन पर जाग्रेब विश्वविद्यालय के तत्वावधान में कराया गया था और हमको उन सभी जगहों पर घुमाया गया जहां हम विषय से संबंधित हर पहलू को महसूस कर सकें। सच कहूं, जाग्रेब पहुंचने से पहले मैंने उस जगह का नाम तक नहीं सुना था पर वहां पहुंचने के बाद जो देखा और जो जाना, उससे आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक ही था।

शुरुआत में प्लितवित्स का क्षेत्र 192 वर्ग किमी. था जो वर्ष 2000 में बढ़ कर लगभग 297 वर्ग किमी. हो गया। सोलह छोटी-बड़ी झीलें, बहुत सारे ऊंचे-नीचे झरने, नदियां और सघन जंगल, कई प्रजातियों की चिडिय़ा, सारी सुख सुविधाओं वाले कई होटल व इलेक्ट्रिक वाहनों के साथ यह राष्ट्रीय उद्यान लाखों पर्यटकों को साल-दर-साल आकर्षित कर रहा है। इस जगह का एक लंबा इतिहास रहा है। भूगर्भ वैज्ञानिक यहां हजारों साल पुराने ट्रेवहटन पत्थरों के बड़े-छोटे रूप देखने दूर-दूर से आते हैं।

यहां पर्यटन का इतिहास 1861 से शुरू हुआ, जब सेना ने तीन कमरे वाले ‘इम्पीरियल हाउस’ का निर्माण किया था। पर्यटकों की संख्या के साथ सुविधाएं बढऩे लगीं। विश्व युद्ध के दौरान नुकसान हुआ, लेकिन फिर अच्छे दिन लौटने लगे। 1949 में इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा दिया गया। होटलों के साथ-साथ पार्क में लकड़ी के पुल, पैदल चलने वालों के लिए मार्ग बनाए गए तो वन्य जीवों जैसे भालू व लोमड़ी के इलाके चिह्नित किए गए।

पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए और भी कई प्रयास हुए। झीलों-नदियों में सैर, तो झरनों के नीचे रोमांटिक विवाह के इंतजाम किए गए। व्यवस्था प्लितवित्स पार्क मैनेजमेंट ने इतनी सुचारु की कि इसे विश्व धरोहर की सूची में 1979 में ही शामिल कर लिया गया, जो आज भी बिना किसी बाधा के बरकरार है। इस अनूठी प्राकृतिक धरोहर की सफलता का मंत्र इसके स्वावलंबी होने में है। कोरोना काल में भी वर्ष 2020 में वहां करीब पौने पांच लाख पर्यटक पहुंचे। यह आंकड़ा 2019 के लगभग पौने अठारह लाख से बहुत कम था, तब भी आशा से बहुत अधिक। पहाड़ों और झीलों के ऊपर, सघन जंगल से निकलती वहां की हवा की खुशबू किसी को भी बार-बार बुला सकती है। आश्चर्य नहीं कि इसकी गिनती यूरोप के प्रमुख आकर्षणों में की जाती है।

ऐसे में सवाल उठता है कि भारत के जंगल और उद्यान, राष्ट्रीय स्मारकों और पर्यटन के बीच खींचतान क्यों? क्यों ये सब एक साथ बैठ कर बात नहीं करते और अदालत में आमने-सामने आने को बेचैन रहते हैं? जिस देश के प्रधानमंत्री पर्यटन में खासी रुचि रखते हों, वहां प्लितवित्स जैसी कहानी क्यों नहीं लिखी जा सकती? पर्यावरण और धरोहर से जुड़े गैर सरकारी संस्थान क्यों सदैव बाधा उत्पन्न करते ही नजर आते हैं? जरूरत है सभी आड़े आने वाले कानूनों में बदलाव की ताकि हम संतुलन और सफलता की एक नहीं, अनेक कहानियां लिख पाएं और हमारी अमूल्य धरोहर को खंडित और बिखरने से बचाएं। जाहिर है इसके लिए पैसा जुटाने में पर्यटन कारगर साबित होगा।

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