आम तौर पर जंगलों में रहने वाला भील समुदाय समय के बदलाव के साथ-साथ अब अपने रहन-सहन में बदलाव करने लगा है लेकिन शहरी सभ्यता की चकाचौंध के बावजूद अपनी सांस्कृतिक पहचान को कायम रखे हुए हैं।
भाद्रपद माह से अश्विन शुक्ल एकादशी तक भीलों में नृत्य गवरी के रूप में खेला जाता है। यह नृत्य शिव और भस्मासुर की पौराणिक कथा से सम्बंधित आख्यानों से जुड़ा है। इस आयोजन के दौरान चालीस दिन तक भील समुदाय संयम का पालन करता है और यथासंभव मांस-मदिरा से दूर रहता है। चिंता की बात यह है कि समाज की मुख्यधारा में जोडऩे के तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद यह समुदाय अभी भी गरीबी, अशिक्षा, नशा और टोने-टोटकों की कुप्रथा का शिकार है। नशे का सेवन तो इस समुदाय के आगे नहीं बढऩे का बड़ा कारण है। कारण यह भी है कि भील समुदाय में मदिरा का सेवन परंपरागत रूप से किया जाता है। ऐसे में अधिकतर लोग नशे के आदी हो जाते हैं और चाहकर भी इस बुराई को नहीं छोड़ पाते।
ऐसे माहौल का उजला पक्ष यह भी है कि गवरी के आयोजन के दौरान नशे से दूर रहा जाता है। सभी तरह के धार्मिक नियमों का पालन भी किया जाता है। यानी एक तरह से जिस बुराई को छोडऩा मुश्किल सा लगता है, उस पर यही धार्मिक निष्ठा पूरी तरह काबू पा लेती है। एक तरह से सकारात्मक संंदेश भी देती है कि यदि जीवन में किसी लक्ष्य को तय किया जाए तो उसे हासिल करना मुश्किल नहीं। सही मायने में निष्ठा ऐसी मनोवृत्ति है जो हमारे भीतर श्रद्धा और विश्वास का रूप ले लेती है।
गवरी परंपरा को यदि गहराई से देखें तो मानना होगा कि यह लोक परंपरा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ आत्मशक्ति को भी विकसित करती है। और यह भी कि ऐसी परंपरा आत्म-विकारों से लडऩे की प्रेरणा भी प्रदान करती है। किसी सामाजिक बुराई पर नियंत्रण के लिए समाज व कानून द्वारा स्वीकृत नियमों की पालना का संदेश भी इससे मिलता है। इसीलिए लोक कला व संस्कृति को भारतीय जीवन का अभिन्न अंग माना गया है।