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विज्ञान वार्ता : सभी एक-दूसरे का अन्न

हम सृष्टि के अभिन्न अंग हैं। अत: सृष्टि की हर रचना के साथ जुड़े हुए हैं। हम सब एक-दूसरे का अन्न भी हैं। अन्न के प्रसंग में श्रुति है ‘सर्वमिदमन्नाद: सर्वमिदमन्नम्’ अन्नाद का अर्थ है ग्रहण करने वाला, खाने वाला। इसका अर्थ है कि सब कुछ अन्न हैं और सभी कुछ अन्नाद हैं।

Mar 06, 2021 / 07:33 am

Gulab Kothari

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– गुलाब कोठारी

प्रकृति के तीन स्वरूप हैं-जन्म, पालन और संहार। इसमें पालन-पोषण की क्रिया बहुत लंबी चलती है। प्रत्येक व्यक्ति की औसत आयु सौ साल मानी गई है। जन्म से पूर्व नौ माह और मृत्यु के बाद बारह मास तक पोषण का एक क्रम (श्राद्ध रूप) परंपरा में दिखाई देता है। किन्तु जीवन का स्वरूप सदा वर्तमान के पालन-पोषण से जुड़ा है। उसका माध्यम है अन्न। हम सृष्टि के अभिन्न अंग हैं। अत: सृष्टि की हर रचना के साथ जुड़े हुए हैं। हम सब एक-दूसरे का अन्न भी हैं। अन्न के प्रसंग में श्रुति है ‘सर्वमिदमन्नाद: सर्वमिदमन्नम्’ अन्नाद का अर्थ है ग्रहण करने वाला, खाने वाला। इसका अर्थ है कि सब कुछ अन्न हैं और सभी कुछ अन्नाद हैं। जिसका जिससे निर्वाह होता है वही उसका अन्न है, जैसे आकाश का अन्न शब्द है। पृथ्वी-जल-तेज-वायु एवं आकाश—पंचभूतों से निर्मित इस शरीर का पोषण अन्न से होता है। भुक्त अन्न भी पंचभूतों से ही बनता है। अन्न से ही सप्तधातुओं सहित मन का भी निर्माण होता है। इसलिए छान्दोग्य श्रुति कहती है कि यह मन अन्नमय है। ‘अन्नमयं हि सोम्य! मन:।’
ऋग्वेद में कहा है कि अन्न में सभी देवताओं का मन निहित है। इन्द्र का मन अमृत के स्थान पर अन्न में ही स्थिर रहता है। इसीलिए यज्ञ में अन्न की आहुति देवताओं के पोषण एवं उनकी तृप्ति के लिए दी जाती है। अन्न से ही मन बनता है। सोम ही इन्द्र का प्रिय अन्न है। इन्द्र, सूर्य की रश्मियों के प्रकाश का नाम है। यह प्रकाश सूर्य के भी ऊपर स्थित परमेष्ठी लोक के सोम से ही अस्तित्व में रहता है। इसी से बादल बनते हैं। इन्द्र, मेघ का वज्र (विद्युत्) से भेदन करता है। इसी से वर्षा होती है। पृथ्वी पर अन्न पैदा होता है। अन्न से मनुष्यों, देवों तथा पितरों का पोषण होता है। इस पूरे चक्र में मन केन्द्र में है। इन्द्र का मन तृप्त होता है तो वर्षा होती है। मन का तृप्त होना ही आवश्यक है।
वैदिक आख्यान के अनुसार जब प्रजापति ने असुर-देवता-पितर-मनुष्य तथा पशु—इन पांचों की सृष्टि की तब वे प्रजापति से बोले कि जीवनयापन हेतु आप हमारे लिए अन्न एवं प्रकाश की व्यवस्था करें—”वि नो धेहि, यथा जीवाम:”। इस अनुनय को स्वीकार कर प्रजापति ने देवताओं के लिए स्वाहा पूर्वक यज्ञ का अन्न और सूर्य का प्रकाश नियत किया। पितरों के लिए प्रत्येक अमावस्या को स्वधापूर्वक अन्न तथा चन्द्रमा का प्रकाश सुनिश्चित किया। मनुष्यों को कहा कि नम: तुम्हारा अन्न होगा और अहोरात्र (२४ घण्टे) में सुबह-शाम-दो वक्त तुम भोजन कर सकते हो। अग्नि तुम्हें प्रकाशित करेगा। पशुओं के लिए प्रजापति ने कहा कि ‘यथाकाम वाऽशेानम्’ अर्थात् तुम चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते, सायं-प्रात:, जब इच्छा हो तब भोजन कर सकते हो। प्रज्ञाशील मानव ही तुम्हारे लिए प्रकाश रहेंगे। असुरों से कहा कि माया-छल-कपट-धूर्तता-ईर्ष्या-कलह-परमोह आदि विपरीत भाव तुम्हारे अन्न हैं। अज्ञान का अंधकार ही तुम्हारे लिए प्रकाश होगा।
यहां अन्न शब्द पुष्टि का द्योतक है। जिस अन्न अथवा भाव से व्यक्ति या प्राणी विशेष की शक्तियों में वृद्धि होती है, वह उसका अन्न कहा जाता है। जो व्यवस्था सृष्टि के आरंभ में की गई वही आज भी है। किन्तु मानव अपनी इस व्यवस्था का अतिक्रमण कर गया फलत: पतन की ओर अग्रसर है। इसका मूल कारण मानव का मन है। यह मन गुणों से प्रेरित होकर ही कर्मों में प्रवृत्त होता है। गुण तीन हैं-सत्त्व, रज एवं तम। संसार में त्रैगुण्य व्यवस्था-मन, विषय, अन्न, प्रकृति आदि सभी जगह विद्यमान है। कृष्ण अर्जुन को इसी त्रिगुणता से मुक्त होने का उपदेश देते हैं कि ‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।’ इस प्रकार अन्न खाद्यान्न के साथ-साथ सात्त्विक, राजसिक व तामसिक मनोभावों का भी ***** है।
बृहदारण्यक उपनिषद में कहा है कि अन्न, जल, अग्नि, वायु, वाक्, बल और ज्ञान, ये सात मनुष्य के अन्न हैं। इन सात प्रकार के अन्नों को पाकर ही जीवन चलता है। जो अन्न खाते हैं, वह औषधि कहलाता है। जीवन का आधार जल है। अग्नि भी अन्न है क्योंकि बिना ताप के मानव जी नहीं सकता। वायु से गति होती है। वाक् रूप शब्द है। सर्वथा नि:शब्द में घबराहट होती है। अत: ध्वनि भी हमारा अन्न है। छठा अन्न बल है-शक्ति के आधार पर जीवन निर्भर होता है। सातवां अन्न सबसे प्रधान ज्ञान रूप चेतना है। इन सात अन्नों को ग्रहण करता हुआ आत्मा तृप्त होता है। वह हर्ष आत्मा रूप ही है। ये सभी अन्न त्रिगुणों से आवरित रहते हैं अत: मानव के मन, बुद्धि, शरीर सभी पर इनका प्रभाव पड़ता है। मनुष्य का आचरण व व्यवहार भी उसी के अनुरूप देखा जा सकता है। अन्न-शुद्धि से सत्त्वशुद्धि होती है। जो व्यक्ति बहुत भोजन करता है तथा जो बिल्कुल भोजन नहीं करता उसका मन संयमित नहीं होता। इसके विपरीत उचित-संतुलित आहार-विहार करने से मन नियंत्रित होता है। जब मन संयमित होता है तो अन्त:करण शुद्ध होता है।
कृष्ण कहते हैं कि—‘आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय:…’ अर्थात् आहार भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुरूप तीन प्रकार का प्रिय होता है। प्रकृति कहते हैं—स्वभाव को। यह सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक तीन प्रकार की होती है। इसी के अनुरूप मानव अन्न की भी इच्छा करता है। सात्त्विक अन्न से मनुष्य का मन भी सत्व गुणों वाला हो जाता है। ‘आहारशुद्धौ सत्त्वसिद्धि’ उपनिषद् वचन इसी तथ्य को प्रतिपादित करता है। कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन! सत्त्वगुण से लौकिक तथा पारलौकिक दोनों ही प्रकार का सुख मिलता है। रजोगुण कर्म में प्रवृत्त करता है और तमोगुण ज्ञान को आवरित करके प्रमाद में अर्थात् अन्त:करण की व्यर्थ चेष्टाओं में लगाता है।
गीता के अनुसार रसयुक्त, चिकना और स्थिर रहने वाला भोज्य पदार्थ सात्त्विक है। लम्बी आयु, अनुकूल, बल-बुद्धि बढ़ाने वाला, आरोग्यवद्र्धक पदार्थ सात्त्विक है। स्वभाव से हृदय को प्रिय लगने वाला भोज्य पदार्थ सात्त्विक है। अत: कहीं किसी खाद्य पदार्थ को घटाना-बढ़ाना नहीं है। परिस्थिति, परिवेश तथा देशकाल के अनुसार जो भोज्य वस्तु स्वभाव से प्रिय लगे और जीवनी शक्ति प्रदान करे, वही सात्त्विकी है। वस्तु सात्त्विकी, राजसी या तामसी नहीं होती, उसका प्रयोग सात्त्विकी, राजसी अथवा तामसी होता है।
कड़वे, खट्टे, अधिक नमकीन, अत्यन्त गर्म, तीखे, रूखे, दाहकारक और दु:ख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय होते हैं। जो भोजन देर का बना हुआ है, अधपका है, रसरहित है (रसरहित का अर्थ यह नहीं कि जल की मात्रा कम हो बल्कि शरीर के लिए स्वास्थ्यवर्धक रसायन से जो रहित है), दुर्गन्धयुक्त, बासी, उच्छिष्ट (जूठा) और अपवित्र भी है, वह तामस पुरुष को प्रिय होता है।
कृष्ण ने आहार के लिए कहा-‘युक्ताहार विहारस्य’। इसी को ध्यान में रखकर आचरण करना चाहिये। जो भजन में सहायक है उतना (वही) आहार ग्रहण करना चाहिए। इस विषय में अनुगीता में कहा गया है कि विनाश के समय बुद्धि विपरीत हो जाती है। प्रमादवश जो मानव अपने सत्त्व, बल तथा काल को जाने बिना आचरण करता है, अत्यधिक भोजन करता है अथवा भोजन ही नहीं करता। दुष्ट अन्न अर्थात् बासी भोजन मांस, मदिरा का सेवन करता है। बिना पचे पुन: भोजन करता है या अधिक रसयुक्त भोजन करता है। वह अपने शरीर के वात, पित्त तथा कफ दोषों को प्रकुपित करता है। अत: जीवन का सुचारू संचालन करने के लिए अन्न का समुचित भोग आवश्यक है। यही संतुलित आहार संतुलित मन का आधार बनता है। ‘जीव जीवस्य भोजनं’ का अर्थ केवल मांसाहार नहीं है। वेद में जड़-चेतन सभी में आत्मा की प्रतिष्ठा कही गई है। अत: शाकाहार भी उसी श्रेणी में आता है। पशु-पक्षी, कृमि-कीट तो एक-दूसरे का अन्न होते ही हैं। ये शरीर के अन्न हैं। इसके अतिरिक्त मन-बुद्धि-आत्मा के भी अपने-अपने अन्न होते हैं। हम बातचीत में भी मन-बुद्धि से एक-दूसरे का भोग ही तो करते हैं। प्रेम-भक्ति स्वयं कितने बड़े भोग हैं, जो केवल मन की तृप्ति पर ही आधारित हैं।

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