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कभी सीखेंगे हम या होते रहेंगे हादसे? (डॉ.एम.एल. कुमावत)

वाराणसी की राजघाट पुलिया पर भगदड़ से हुए हादसे ने फिर यह सोचने को मजबूर
कर दिया है कि आखिर भीड़ को काबू करने के हमारे प्रयासों में शिथिलता क्यों
रहती है? अफवाहों को समय रहते काबू करने के प्रयास क्यों नहींं होते?

Oct 17, 2016 / 10:18 pm

शंकर शर्मा

opinion news

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वाराणसी के राजघाट पुल पर अत्यधिक भीड़ और अफवाह के बाद मची भगदड़ ने करीब दो दर्जन जानें ले ली। इसके बाद जिम्मेदार अफसरों के निलम्बन व उन्हें हटाने का दौर भी चल रहा है। लेकिन, सबसे बड़ी बात यह है कि आखिर इस तरह के हादसे होते ही क्यों हैं? पहले हुए हादसों से क्यों नहीं कोई सबक लिया जाता? क्यों नहीं भीड़ का आकलन कर उसके हिसाब से सुरक्षा इंतजाम पहले से ही पुख्ता किए जाते?

भीड़ व भगदड़ तथा निर्दोष लोगों की जान जाने के ऐसे उदाहरण देश के विभिन्न इलाकों में होते रहे हैं। खास तौर से धार्मिक व राजनीतिक कार्यक्रमों में ऐसे हादसे ज्यादा सामने आते हैं। इसमें भीड़ का अत्यधिक उत्साह भी कारण रहता है। यह उत्साह देव-दर्शन या धर्मगुरु को देखने की उत्कंठा या फिर अपने नेता के नजदीक पहुंचने की चाह हो सकती है। लेकिन, सबसे बड़ा कारण भीड़ का निर्धारित स्थान पर क्षमता से अधिक आना ही माना जाना चाहिए।

मेरा मानना है कि बेकाबू भीड़ किसी भी किस्म की अफवाह पर विचलित होकर त्वरित प्रतिक्रिया देती है। इससे भगदड़ की आशंका सबसे अधिक रहती है। वह भी ऐसी स्थिति में ज्यादा हो सकती है जबकि अफवाहों को शांत करने के तात्कालिक प्रयास नहीं हो पाए हों। राजघाट पुल के इस हादसे में भी सबसे बड़ा सवाल यही उभर कर सामने आता है कि आखिर पुलिया पर जाम जैसे हालात बने ही क्यों? बाबा जयगुरुदेव के समागम में इतनी अधिक संख्या में लोग आएंगे तो क्या आयोजकों ने इसकी समुचित अनुमति ले रखी थी?

और अनुमति ले भी रखी थी तो क्या पुलिस ने इस बात का इंतजाम कर रखा था कि भीड़ को कैसे नियंत्रित किया जाए? वाराणसी के इस प्रकरण में लापरवाही के कारण तो जांच के बाद ही सामने आने वाले हैं लेकिन मोटे तौर पर इस तरह के हादसों में पुलिस-प्रशासन और आयोजकों की लापरवाही ही ज्यादा नजर आती है।

धार्मिक व सामाजिक आयोजनों में ऐसे पिछले हादसों से हमें सबक लेने की जरूरत रहती है। हर बड़े हादसे पर जांच कमेटियां बनती हैं और उनकी रिपोर्ट भी आती है लेकिन जब कार्रवाई की बारी आती है तो नतीजा सिफर रहता है। ऐसा लगता है कि फिर ऐसे ही किसी हादसे का इंतजार करने की हमारे तंत्र की आदत ही हो गई है। भीड़ प्रबंधन की अपनी तकनीक होती है और इस तकनीक को समय, स्थान व परिस्थितियों के मुताबिक काम में लिया जाता है। लेकिन मोटे तौर पर कुछ बातें ऐसी है जिनकी पूर्व तैयारी कर ऐसे हादसों से बचा जा सकता है।

सबसे पहले तो आयोजकों के साथ मिलकर पुलिस प्रशासन को सम्बन्धित आयोजन में आगंतुकों की संख्या का अनुमान लगाना चाहिए। इसमें भी बच्चों, महिलाओं और वृद्धों की संख्या का अलग से अंदाज होना चाहिए। न केवल यह अंदाज बल्कि इनकी आवाजाही की भी सुरक्षित व्यवस्था होनी चाहिए।

आम तौर पर भगदड़ की स्थिति में सबसे ज्यादा मार बच्चों, महिलाओं और वृद्धों पर ही पड़ती है। कई बार इनको बचाने के चक्कर में वे भी चपेट में आ जाते हैं जो सुरक्षित निकल सकते थे। आयोजनों में प्रवेश और निकास की पृथक व्यवस्था रखी जानी चाहिए। आयोजन बड़ा हो या छोटा, पुलिस को सबसे पहले भीड़ का आकलन करना ही चाहिए तथा आयोजन स्थल पर क्षमता से अधिक लोगों की पहुंच को सबसे पहले नियंत्रित करना चाहिए। किस स्थान पर कितनी भीड़ है और उसे कैसे काबू में किया जाए इसको जानने के लिए क्लोज सर्किट टीवी सबसे बेहतर उपाय है। ज्यादा भीड़ को मौके पर ही रोक दिया जाना चाहिए।

मुझे आंध्रप्रदेश में भी अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून-व्यवस्था) के रूप में काम करने का मौका मिला है। वहां तिरुपति मंदिर में पहुंचने वाले लाखों श्रद्धालुओं को नियंत्रित करने की व्यवस्था की मिसाल दी जा सकती है। वैष्णोदेवी मंदिर में भी दर्शनार्थियों के लिए बेहतर व्यवस्था है जिसमें किसी तरह की भगदड़ को टाला जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि भीड़ में किसी भी तरह की अफवाह को शांत करने के उपाय जरूरी है।

इसके लिए भीड़ की आवाजाही मार्ग पर लाउडस्पीकर लगे होने चाहिए। अग्निशमन उपाय, एम्बुलेंस, चिकित्सा व्यवस्था आदि तो होनी ही चाहिए। एक समस्या यह भी आती है कि भगदड़ के बाद हताहत हुए लोगों की पहचान का संकट आ जाता है। लोग अपने परिजनों से बिछुड़ जाते हैं। आयोजकों को चाहिए कि वे यथासंभव आने वालों के लिए परिचय पत्र जारी करें।

ऐसा संभव नहीं हो तो भी जनता से यह अपेक्षा जरूर की जाती है कि वे यदि किसी आयोजन में अनियंत्रित भीड़ में शामिल होते हैं तो अपनी पहचान का कोई न कोई प्रमाण जरूर साथ रखें। और सबसे बड़ी बात यह है कि भीड़ को रोकने के काम में राजनीतिक दखल बिल्कुल नहीं हो।

अमरनाथ यात्रा की परेशानियां व जोखिम सब जानते हैं। लेकिन राजनीतिक दबाव में कई बार यहां भी यात्रा अवधि और यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी हो ही जाती है। भीड़ बेकाबू नहीं हो इसके लिए प्रशासन को अत्यधिक सावचेती बरतने की जरूरत तो है ही, पिछले हादसों से सबक भी लेना होगा।

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