इन घटनाओं के फलस्वरूप एक स्वाभाविक अपेक्षा यह थी कि भारत में विश्वभर से निवेशकर्ता पूंजी लगाएंगे और देश की विकास दर नई ऊंचाइयां छू लेगी। लेकिन इन सभी कीर्तिमानों के बावजूद कुछ दिनों से भारतीय रुपया डॉलर की तुलना में कमजोर हो रहा है। अल्प समय के लिए डॉलर 70 रुपए के करीब पहुंचने वाला था, हालांकि बाद में स्थिति में सुधार हुआ। एक डॉलर के लिए किसी भारतीय को कितने रुपए देने हैं, वस्तुत: इसका निर्धारण डॉलर की मांग तथा पूर्ति द्वारा होता है। डॉलर की मांग आयात की जाने वाली वस्तुओं की मात्रा तथा उनकी कीमतों, आयातित सेवाओं के मूल्य, विदेशी कर्जों की अदायगी, विदेश जाने वाले यात्रियों व अध्ययनरत विद्यार्थियों आदि द्वारा चाही गई राशि पर निर्भर करती है।
दूसरी ओर, डॉलर की पूर्ति निर्यातित वस्तुओं की मात्रा व मूल्य, सेवाओं के निर्यात, देश में प्राप्त विदेशी निवेश, संस्थागत पूंजी निवेश, भारत में विदेशी पर्यटक तथा विदेशी छात्र और विदेशी वाणिज्यिक ऋण पर निर्भर करती है। एक बात और है, निर्यात और आयात की मांग-लोच निर्धारित करती है कि इनकी मात्रा में कितना उतार-चढ़ाव होता है। स्पष्ट है यदि डॉलर की मांग बढ़ती है और पूर्ति में तदनुसार वृद्धि होती है तो डॉलर के लिए अधिक रुपया देना होगा।
भारत से पूर्व में कृषि वस्तुओं का पर्याप्त मात्रा में निर्यात किया जाता था, लेकिन आज कृषि जिंसों की कुल निर्यात में हिस्सेदारी केवल १० फीसदी है। इनमें चावल, कपास, खली तथा अत्यंत अल्प मात्रा में चाय व कॉफी का निर्यात शामिल है। सर्वाधिक निर्यात वाली वस्तुओं में रत्न, जेवर, पोशाकें और कपड़ा शामिल है, लेकिन कड़ी स्पर्धा के कारण भारतीय व्यापारियों को कम कीमतें मिलती हैं। कुल मिलाकर भारतीय निर्यात का वैश्विक निर्यात में केवल 1.7 प्रतिशत योगदान है। सेवाओं के निर्यात में भारत का योगदान वैश्विक व्यापार में करीब तीन फीसदी है।
हमारे आयातों में विशेष रूप से क्रूड ऑइल, रत्नों की खरड़, सोना-चांदी तथा विशेष प्रकार के अभियांत्रिक उपकरण शामिल हैं। लेकिन आयात- निर्यात की आय तथा कीमत लोच बहुत कम है और इस कारण हमारी नीतियों में कितना ही बदलाव हो, अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते।
देश में विदेशी पूंजी की प्राप्ति प्रत्यक्ष निवेश और संस्थागत निवेश से होती है। पिछले कुछ वर्षों में विदेशी पंूजी के प्रति सरकार की नीतियां उदार हुई हैं। 2011-12 में देश को कुल 81.8 अरब डॉलर की विदेशी पूंजी प्राप्त हुई जो 2017-18 में बढ़कर 209 अरब डॉलर हो गई। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी मार्च 2018 में 409 अरब डॉलर हो गया। लेकिन विदेशी निवेश के लिहाज से आज भी भारत का स्थान दसवां है। भारत विदेशी पूंजी प्राप्त करने वाले ब्रिक्स देशों की सूची में सबसे नीचे है।
चीन का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग 8400 अरब डॉलर है, जो भारत से 20 गुना है। भारत का चालू खाता शेष (सभी प्रकार की डॉलर प्राप्तियां व भुगतान) 30 वर्षों से ऋणात्मक बना हुआ है जबकि चीन, रूस, मलेशिया व अन्य उदीयमान देशों का चालू खाता शेष अनवरत रूप से धनात्मक है। एक बात और, 2017-18 को छोड़कर उससे पूर्व के चार वर्षों में हमारे निर्यात में ऋणात्मक बदलाव हुआ।
कतिपय कारणों से वैश्विक निवेशकों में भारत के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई है और संस्थागत निवेश में भी वृद्धि के स्थान पर कमी देखी जा रही है। इनमें पहला कारण है कि व्यवसाय की सरलता इंडेक्स में सुधार के बावजूद भारत में व्यवसाय शुरू करने, उसे चालू रखने और विपरीत परिस्थिति में उसे बंद करने की कठिनता। इन तीनों के लिहाज से देश की वैश्विक रैंक बहुत नीची है।
दूसरा कारण यह कि पिछले दो वर्षों में हमारे बैंकों का निष्पादन, बढ़ते हुए ‘बुरे ऋण’ और बट्टे खाते ऋणों की वृद्धि ने वैश्विक स्तर पर भारतीय बैंक व्यवस्था की विश्वसनीयता को कम कर दिया है। कोई भी विदेशी निवेशक यहां पूंजी निवेश से डर रहा है। पिछले दस वर्षों में बैंकों ने करीब 4.80 लाख करोड़ रुपए बट्टे खाते में डाले हैं। तीसरा अहम कारण यह कि वैश्विक स्पर्धाशीलता इंडेक्स में भारत की रैंक भले ही ४० हो, पर देश के उत्पादों की उत्पादन लागत अधिक है। इसके चलते देश के निर्यात में वृद्धि हो पाएगी, यह संदेह से परे नहीं है।
सीएस बरला, अर्थशास्त्री