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भारत माता की जय से किसे है परेशानी?

‘भारतमाता की जय’ को लेकर ताजा विवाद को संदर्भों में समझना जरूरी है।

नई दिल्लीMar 04, 2020 / 07:43 pm

MUKESH BHUSHAN

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‘भारत माता की जय’ नारे से किसे परेशानी हो सकती है? यह नई चर्चा मंगलवार को तब फिर शुरू हो गई, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा संसदीय दल की बैठक में कहा कि ‘भारत माता की जय’ बोलने से कुछ लोगों को दिक्कत हो रही है। ‘ये वही लोग हैं जिन्हें स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘वंदे मातरम’ कहने में परेशानी होती थी।’
माना जा रहा है कि मोदी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर कटाक्ष कर रहे थे जिन्होंने शनिवार को कहा था कि भारत के बारे में ‘भावनात्मक और उग्र विचार’ पैदा करने के लिए कुछ लोग ‘भारत माता की जय’ नारे का दुरुपयोग कर रहे हैं। पीएम मोदी के तंज के बाद यह नारा एक बार फिर चर्चा में आ गया है।
अर्थ का अनर्थः

मोदी जानते हैं कि ‘भारत माता की जय’ से सिर्फ राष्ट्रविरोधियों को ही दिक्कत हो सकती है। इसलिए बिना कहे ही उन तमाम लोगों की राष्ट्र के प्रति निष्ठा संदिग्ध हो जाती है जो ‘भारत माता की जय’ उद्घोष पर किसी तरह की आपत्ति कर रहे हैं। दरअसल यही उग्र राष्ट्रवाद है, जहां संदर्भ गौण हो जाते हैं और अर्थ रूढ़।
जिस ‘वंदे मातरम’ गीत की इससे तुलना की जा रही है, उसका संदर्भ याद करना ‘भारत माता की जय’ के नए विवाद को समझने में सहायक हो सकता है। बंकिम चंद्र चटर्जी ने यह गीत 1875 में लिखा था और 1885 में अपने विवादास्पद उपन्यास ‘आनंद मठ’ में उन्होंने इसका उल्लेख किया।
बंगाल की अस्मिता को स्थापित करने के उद्देश्य से लिखे गए इस गीत को अरबिंदो घोष ने बंगाल का ‘राष्ट्रीय गीत’ कहा था। बंगाल विभाजन के समय (1905) में अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ इसे एक बिगुल की तरह इस्तेमाल किया गया पर, शीघ्र ही यह राज्य से बाहर निकल कर पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ एक हथियार बन गया।
तब हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई ही नहीं, आजादी के सभी दीवाने इसे गुनगुनाने में गर्व महसूस करते थे। बारीसाल (अब बांग्लादेश में) में कांग्रेस के प्रांतीय सम्मेलन में वंदे मातरम गाने के कारण ही अंग्रेजों ने हमला कर दिया था। यह इतिहास बताता है कि कांग्रेस के लिए तब इसका वह अर्थ नहीं था जिस ओर मोदी इशारा कर रहे हैं।
मोहरा बना वंदे मातरमः

इतिहास इस बात का भी गवाह है कि अंग्रेजों ने ‘भारतीय राष्ट्रीयता’ की धार को कुंद करने के लिए ही बांटो और राज करो की नीति के तहत ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ और ‘मुस्लिम राष्ट्रवाद’ के बीज बोए, जिसकी परिणति आजादी के बाद देश के बंटवारे के रूप में हुई। दुर्योग से ‘वंदे मातरम’ को एक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया गया।
वंदे मातरम पर एक धर्म विशेष को तवज्जो देने के आरोप लगने पर 1937 में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद और सुभाषचंद्र बोस की कांग्रेस समिति ने गीत के उस हिस्से को नहीं गाने का निर्णय लिया जिस पर आपत्ति की जा रही थी। क्या उपरोक्त चारों महानुभावों में से किसी की देशभक्ति पर संदेह किया जा सकता है।
एक अवांछित विवादः

‘वंदे मातरम’ पर विवाद उस समय भी अवांछित था, आज भी अवांछित है। विवाद के इतिहास से हम समझ सकते हैं कि संदर्भों के बदलते ही कैसे शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं। दंगाई भीड़ जब किसी को डराकर ‘भारत माता की जय’ बोलने के लिए विवश करती है तो उसका वही अर्थ नहीं रह जाता जैसा तब होता है जब आम हिंदुस्तानी गर्व से ‘भारत माता की जय’ कहता है।
बेहतर होता यदि प्रधानमंत्री मोदी संदर्भों को भूलकर कांग्रेस पर तंज करने से बचते और उन दंगाइयों को ‘भारत माता की जय’ चिल्लाने से रोककर इस नारे की पवित्रता को बरकरार रखने का जतन करते। आखिर कई मौकों पर स्वयं भी वह कह चुके हैं कि वह उन मतदाताओं के भी प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने उन्हें वोट नहीं दिया है।
यदि ऐसा नहीं हुआ तो इस बात का डर है कि जिस तरह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ‘वंदे मातरम’ की पवित्रता पर एक समूह विशेष में शक पैदा हुआ था, कहीं वैसा ही ‘भारत माता की जय’ के उद्घोष को लेकर न हो जाए। मनमोहन सिंह की चिंता वाजिब है। ऐसा होना कम-से-कम देश के हित में तो नहीं ही होगा।

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