फांसी दिए जाने के समर्थन और विरोध में उठे तमाम स्वरों के बीच याकूब को विधिक उपचार के सारे विकल्पों को अपनाने का पूरा मौका दिया गया। उसकी दया याचिका पिछले साल अप्रेल में राष्ट्रपति ने नामंजूर कर दी थी। इसके बाद याकूब की तरफ से एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की गई।
इस साल अप्रेल में यह याचिका भी नामंजूर होने के बाद याकूब को फांसी पर लटकाए जाने का रास्ता साफ हो गया था। याकूब की तरफ से बाद में सर्वोच्च न्यायालय में क्यूरेटिव याचिका दायर की गई जिसे भी न्यायालय ने नामंजूर कर दिया। मुंबई धमाकों का मामला न्यायालयों में 22 साल तक चलना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि देश में न्यायिक प्रक्रिया में देर हो सकती है लेकिन किसी भी व्यक्ति को अपने बचाव के तमाम अवसर उपलब्ध कराए जाते हैं।
याकूब को फांसी दिए जाने का विरोध करने वाले वर्ग का मानना था कि धमाकों की साजिश में बेशक उसकी भूमिका रही हो लेकिन उसने जांच एजेंसियों को बेहद महत्वपूर्ण जानकारियां मुहैया कराई। फांसी का विरोध करने वालों का तर्क था कि जो शख्स 22 साल जेल में बिता चुका हो उसे आजीवन कारावास की सजा देना ही पर्याप्त होगा।
दुनिया के अनेक मुल्कों की तरह भारत में भी फांसी की सजा समाप्त करने के समर्थन में खड़े होने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। याकूब की फांसी को माफ करने के समर्थन में अनेक जाने-माने लोगों ने राष्ट्रपति के समक्ष गुहार भी लगाई।
सवाल ये है कि फांसी की सजा दी जाए या समाप्त की जाए, इसका फैसला देश की संसद ही कर सकती है। सड़कों पर विरोध करके फांसी की सजा को समाप्त नहीं किया जा सकता। देश में कानूनी सुधारों को लेकर लम्बे समय से बहस चल रही है।
फांसी दी जाए अथवा नहीं, इस पर भी बहस होनी चाहिए। संसद में भी और बाहर भी। लेकिन फांसी की सजा को राजनीतिक मुद्दा बनाए जाने से बचना चाहिए। राजनेताओं के पास वोटों की राजनीति के लिए तमाम दूसरे मुद्दों की कमी नहीं है।
अपराधी और वो भी आतंकवाद जैसे जघन्य अपराध के मामलों को तो दलगत राजनीति से दूर ही रखा जाना चाहिए। ऎसा करना राजनेता ही नहीं देश के हित में भी नहीं माना जा सकता।