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कला में क्यों हैं संशय की दीवारें

कल्पनाएं भले परिवेश तथा उसके जीने के माहौल से प्रभावित रहती हों, लेकिन होती असीम है

Dec 28, 2016 / 05:56 pm

जमील खान

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यह समय की देन है कि चित्रकला का मूर्त स्वरूप कालान्तर से अमूर्तता की और बढ़ा तथा इसी अमूर्तन में नए युग के भावबोध समाहित भी हुए। चित्रकला के व्याकरण में चित्रकार की कल्पना और रचना प्रक्रिया के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता। आड़ी-तिरछी रेखाऐं हों या कोई यथार्थवादी अथवा परम्परावादी चित्र, कल्पना के सहारे के बिना चित्रकार के रंग और उसके आकार रचना प्रक्रिया को जन्म नहीं दे सकते। इस संपुष्ट आधार के लिए दोनों की उपस्थिति एक सशक्त और सार्थक चित्र निर्माण की जरूरत बनी रही है।

कल्पनाएं भले परिवेश तथा उसके जीने के माहौल से प्रभावित रहती हों, लेकिन होती असीम है। सोचना मनुष्य की एक सतत प्रक्रिया का अंग होता है, लेकिन चित्रकार का चीजों में झाँकना एक पृथक परिकल्पना है, जो समयान्तर से एक चित्र रचना के लिए महत्वपूर्ण होता है। अमूर्त चित्रों की रचना प्रक्रिया में भी इस कल्पना शक्ति के चमत्कार से इंकार नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि एक चित्र मुँह बोल जाता है और एक-दूसरा चित्र प्रभाव नहीं जमा पाता।

यह कल्पना चित्रकार की आकार-स्वरूपों तथा अमूर्तता तक ही सीमित नहीं होती अपितु वह जब रंगों के जाले बुनता है तब भी अपना काम करती है। समकालीन कला आंदोलन के परिदृश्य पर जब नजर डालकर देखें तो स्पष्ट रूप से उसका क्रमिक विकास दिखाई देने लगता है।

आकार धीरे-धीरे निराकर की और बढ़े तथा प्रतीक रूप में कला में सामयिक चेतना का अहसास, सुख-दुख और मानव मन के दूसरे भाव रखने-समेटने की प्रक्रिया जनमी। यों तो कल्पना चित्रफलकों में भाव-सौन्दर्य की जननी रही है, परन्तु वह सामयिक जीवन संघर्षो से अछूती भी नहीं रहती। मनुष्य का स्वभाव है कि वह जीवनगत जटिलताओं को देखने के बाद उन पर मनन करता है, यह मनन विचार अथवा रेखाऐं सहारे ही आकार लेते हैं, यह आकार अब भले ऊपरूप संरचनाओं का आलंबन बन जाऐं या फिर यथार्थवादी चित्रशैली का जीवंत रंब बोध।

निश्चित ही चेतनाजन्म और अनुभूतिजन्म परिवेश का चित्रण चित्रकारों की रंगयात्रा का मूल आधार है। बिना कल्पना और रचना प्रक्रिया के किसी ठोस परिणाम के लिए आतुर चित्र की सोचना भी मुश्किल ही है। यह सोचकर की कैनवास पर रंग बिखेरकर अमूर्तन की तलाश हो जाएगी तो यह हमारी मानसिक विफलता है। अन्यथा कला का शास्त्र तथा उसका व्याकरण एक संयोजन की ओर चित्र निर्माण के समय लक्षित होना ही चाहिए।

उसी के चित्रकार की रचना प्रक्रिया भी बन जाती है तथा चीजों को देखने के दृष्टि का भी पता चल जाता है। आधुनिक कला के संदर्भ को लेकर अनेक बार संशय की दीवारें खड़ी की जाती हैं तथा अमूर्तन को निस्सार करार देने के फतवे भी घढ़े जाते हैं। यह उन्हीं लोगों की साजिश अथवा परम्परावादी सोच का मिला-जुला परिणाम है, जो नए भाव बोध के अमूर्तन स्वरूप में डूबने से इंकार करते हैं। रंगों को समेटना उन्हें आकारों में अत्यधिक आकर्षक रूप देना क्या जीवनगत सच्चाईयों का आदर्श नहीं हो सकता ? निसन्देह इन चित्रों में भी चित्रकारों की आत्मा का संगीत बोलता है, प्रश्न इस संगीत से अन्तसंबंध स्थापित करने तथा उसे सार्थक अमूर्त रचना में बाँधने का है।

चित्रों को समझने के लिए अकेली आँखों का सहारा, मात्र देखने का चाव ही जगा पाता है लेकिन अन्तर्चक्षु खोलकर चित्रों से साक्षात्कार किया जाए तो चित्रकार का कथ्य भी समझा जा सकता है। यानि चित्रकार ने फलक पर जो रचना की है उस अमूर्त का कोई आकार स्वरूप है तो उसमें रंग और रेखाऐं कुछ तो बोलती ही हैं।

जब पूरा चित्रफलक किसी अर्थ को जीवंत करता है तो इसे निस्सार कहने वालों को जवाब खुद व खुद मिल जाता है। अब यह कौशल फिर उसकी कल्पना और चित्र निर्माण की प्रक्रिया पर निर्भर हो जाता है कि वह कैसे प्रभाव उत्पन्न करने में सफल या असफल रह सका है। रंगों से खेलने तथा कूँची को चलाने का अवसर तो उसे मिला ही है। चित्रफलकों पर आंधियाँ चलती हैं, थोड़े दौडते हैं या प्रलय मच जाती है अथवा जड़ समाज के संवेदनशून्य होने का पता चलता है या फिर खानों-चौखानों के पार एक अद्भुत चिताकर्षक सौन्दर्य का बुलावा दिखाई देता है तो यह चित्रकार की सजगता और उसके भाव निरूपण पर ही तो निर्भर करेगा ?


कला जीवन की जरूरत है। इससे हटकर जो लोग जीवन की कल्पना करते हैं, वे जीवन से ठीक-ठाक तालमेल नहीं बना पाते और स्वाभाविक रूप से जड़ता के शिकार भी होते हैं। कलाभिव्यक्ति और उसे देखने की लगन मनुष्य की प्रारंभिक समझ व सोच से जुड़ी एक सहज प्रक्रिया है। इसलिए कल्पना और रचना प्रक्रिया का तालमेल ही समयान्तर से चित्रकार की पहचान और उसकी अपनी विशिष्ट शैली का परिचायक भी है। इसलिए अमूर्तन में मूर्त रूप खोजना जटिल हो सकता है। लेकिन असंभव नहीं। एक चित्र में अँधेरा-उजाला, कटे-फटे टूटे हाथ या पानी में डूबता-लटकता सूरज या चाँद अथवा नर कंकाल या फिर रंगों की सुन्दरता दिखाई दे रही है तो यह किसी रूप में तो मन को छूती ही है।


जब मन का संस्पर्श चित्रों में जुड़ रहा है तो इसकी जटिलता का हल मिल जाता है। इसलिए चित्रों से रूबरू होने की जरूरत है। इनसे दूर होना अथवा आग्रहपूर्वक देखना, समकालीन कला के जीवंत दर्शन के लिए कष्टप्रद ही नहीं, एक सार्थक दृष्टिकोण से भी इंकार करना है। इसलिए अमूर्तन में चित्रों के सार्थक अर्थ कल्पना की समझ और रचना प्रक्रिया को समझना मुश्किल नहीं है। अपने सोच का दायरा व्यापक हो तो यह अमूर्तता वर्तमान जीवन के सारे आयाम खोल देती है तथा कला से तादात्म्य बना रहता है।

चन्द्रकान्ता शर्मा

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