दर्द का अहसास तभी होता है जब चोट अपने आपको लगती है। जैसे मंगलवार को केन्द्रीय मंत्री वेंकैया नायडू को लगी। नायडू को लेकर उडऩे वाले विमान का पायलट आधा घंटे विलंब से पहुंचा तो वे भड़क उठे।
एयर इंडिया प्रबंधन को आड़े हाथों लेते हुए जवाब मांग लिया। नायडू ने जो किया उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता लेकिन क्या नायडू और एयर इंडिया के अधिकारियों को पता नहीं कि ऐसा अक्सर होता है। बिना किसी वाजिब कारण के विमान घंटे-डेढ़ घंटे देरी से उड़ते हैं। यात्री हैं कि इंतजार करने के अलावा कुछ कर नहीं सकते।
शिकायत जरूर करते हैं लेकिन उस पर कार्रवाई होती नहीं। केन्द्रीय मंत्री का विमान लेट हो गया तो हंगामा बरप गया। मानो आम आदमी के समय की कोई कीमत ही नहीं। यहां मुद्दा सिर्फ विमानों की उड़ान में देरी का नहीं। आए दिन ट्रेनें घंटों देरी से चलती हैं। यात्री परेशान होते रहते हैं लेकिन उन्हें जवाब नहीं मिलता। न उनकी अधिकारी सुनते हैं और न कर्मचारी। सरकारी दफ्तरों के हाल भी लगभग ऐसे ही बेहाल हैं।
दस बजे दफ्तर खुलने का समय हो तो 11-11 बजे तक कर्मचारी सीट पर नहीं आते। दोपहर में लंच के नाम पर घंटे-डेढ़ घंटे गायब रहना, सो अलग। कोई भी नई सरकार आती है तो गुड गवर्नेंस की बात करती है। महीने-दो महीने माहौल बदला-बदला नजर आता है लेकिन फिर वही पुराना ढर्रा। मंत्री-अधिकारियों और नेताओं के काम मिनटों में हो जाते हैं लेकिन जनता हाय-तौबा मचाते ही रह जाती है।
वेंकैया नायडू ने विमान चालक के आधे घंटे देरी से पहुंचने पर पूरे एयर इंडिया को हड़का दिया। अच्छा हो हर विमान के देरी से उडऩे का कारण एयर इंडिया से पूछा जाए। हर ट्रेन के भी देरी से चलने का न सिर्फ कारण पूछा जाए बल्कि दोषी अधिकारी-कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई भी की जाए।
संदेश ये निकलना चाहिए कि मंत्री और जनता में कोई फर्क नहीं है। सबके समय की कीमत का महत्व समझा जाए। ऐसा करना मुश्किल नहीं। जरूरत सिर्फ निष्पक्षता से काम करने की है। ईमानदारी से काम करने की कोशिश की जाए तो देश बदलता नजर आ सकता है। लेकिन सिर्फ एकाध अधिकारियों को नोटिस देने या निलंबित करने से काम चलने वाला नहीं। इसके लिए सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली को बदलना होगा और अपनों-परायों के भेद से ऊपर उठना होगा।