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पत्रिका प्लस

एक अमर प्रेम का आख्यान

राघवेन्द्र रावत नाट्य समीक्षा

जयपुरFeb 02, 2020 / 12:24 pm

Anurag Trivedi

एक अमर प्रेम का आख्यान

एक अमर प्रेम का आख्यान

जवाहर कला केंद्र जयपुर में कल छह दिवसीय ‘रंग राजस्थान’ नाट्य महोत्सव की शुरुआत हुई | शुरुआत इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि जिस नाटक से हुई वह था ‘एक अनजान औरत का ख़त’ | उक्त नाटक प्रसिद्ध ऑस्ट्रियाई लेखक स्टीफन स्वाइग की लम्बी कहानी (अ लैटर फ्रॉम अननोन वुमन ) के ओमा शर्मा द्वारा किये गए अनुवाद पर आधारित है | नाटक के निर्देशक थे दौलत वैद, जिन्होंने न केवल नाटक का निर्देशन किया बल्कि नाट्यरूपांतरण किया और नाटक में प्रकाश व्यवस्था भी उन्होंने बखूबी संभाली |
स्टीफन स्वाइग उन लेखकों में से रहे हैं जिनकी कहानियों को बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में विश्व भर में बहुत पसंद किया गया | जिस कहानी पर यह नाटक आधारित है वह उनकी कालजयी कहानी है जिसको पढ़ कर गोर्की रो पड़े थे और उन्होंने स्वाइग को पत्र लिख कर कहा कि ‘ इस कहानी ने मेरी अंतरात्मा को हिला दिया, कथ्य की मौलिकता एवं वर्णन की जादुई शक्ति है ,वह एक सच्चे कलाकार की पहचान है , आप स्त्री पात्रों का चित्रण बहुत सूक्ष्मता से करते हैं ‘| ज़ाहिर है ऐसी महत्वपूर्ण कृति का मंचन अपने आप में चुनौती से कम न था | यधपि इस कहानी पर एक यादगार फिल्म भी 1948 में बनी थी जो न्यूयार्क (अमेरिका) में प्रदर्शित सफल फिल्मों में गिनी जाती रही है|
लगभग अस्सी मिनट की इस नाट्य प्रस्तुति में दर्शक मंत्र मुग्ध से बैठे रहे , बीच- बीच में केवल तालियाँ ही एक अवरोध कही जा सकती थी लेकिन अवरोध पैदा नहीं कर रहीं थी | यह इस बात का संकेत देता है कि दर्शक पूरी तरह से नाटक के प्रवाह में बहने लगे थे | दौलत वैद राष्ट्रीय नाट्य विधालय के स्नातक रहे हैं तथा अनेकों नाटकों में अपने अभिनय और निर्देशकीय कौशल से अपनी पहचान भारतीय रंगमंच पर बना चुके हैं | नाटक की शुरुआत जिस ढंग से होती है उस एंट्री पॉइंट से ही दर्शक को आकर्षित करने लगता है |नाटक का पुरुष मुख्य पात्र जो कि एक लेखक है मंच के एक कोने में रखी टेबल पर पत्र पत्रिकाओं को देखता है ,उसमें ख़तो का एक बण्डल भी है उस पर भेजने वाले का नाम व् पता नहीं लिखा मिलता है |जिज्ञासा वश वह पत्र खोलता है तो एक बड़ा लम्बा ख़त निकलता है जिसके ऊपर लिखा है “तुमको , जिसने मुझे कभी नहीं जाना “| यह एक पंक्ति उसकी बेचैनी बढ़ा देती है और वह ख़त पूरा पढ़ने लगता है | यह ख़त उस औरत ने लिखा है जिसका बच्चा मर चुका है और वह स्वंय भी टाइफाइड से ग्रस्त है उसे लगता है कि शायद अब वह भी नहीं बचेगी अतः मरने से पहले उस लेखक को पत्र लिख कर बताना चाहती है कि वह उसे किस हद तक प्यार करती थी और वह मृत लड़का जो सामने बिस्तर पर पड़ा है वह उनके प्रेम की निशानी है | वह अपने प्रेमी से कोई उम्मीद नहीं करती ,न कुछ चाहती है, न उसे आरोपित करना चाहती है, बस लेखक(प्रेमी) को बता कर अपने मन का बोझ कम करके मरना चाहती है| लेखक से पहली मुलाक़ात से लेकर उस दिन तक उसके प्रेम की तीव्रता और पवित्रता उतनी सघन बनी हुई है | वह पत्र में बताती है कि उसके सम्पर्क में आने और यह पत्र लिखने से पहले उसने कभी लेखक से मिलने का प्रयास नहीं किया न ही ख़त भेजा ,वह उसे याद करते हुए पत्र लिख- लिख कर फाड़ती रही क्योंकि वह अपने प्रेम से लेखक को कोई दुविधा में नहीं डालना चाहती थी | दरअसल इस नाटक के केंद्र में एक तेरह वर्ष की लड़की है जो एक गरीब विधवा की बेटी है जिसका बेटा कमजोर सा है और वह हमेशा ग़मगीन और उदास रहती है |ऐसे माहौल के बीच जब उस लड़की को पता चलता है कि उनके सामने वाले फ्लैट में कोई धनवान युवा लेखक रहने आने वाला है तो बहुत रोमांचित हो जाती है, कल्पना से उसकी तस्वीर मन में बनाती है जब उसका सामान आता है उसकी किताबों ,तस्वीरों और अन्य कलाकृति देख कर बेहद प्रभावित होती है | जब वह लेखक को देखती है तो उसी क्षण से उससे प्यार करने लगती है ,यहाँ तक कि उससे बात भी नहीं हुई ,मिली भी नहीं लेकिन लेखक के प्रति आकर्षण बढ़ता ही जा रहा था| नाटक के जरिये लेखक यह कहना चाहता है कि एक बच्ची के अंदर छुपे और अनदेखे प्यार की कोई बराबरी नहीं है | बाल मन की उस मनोवस्था को दौलत वैद ने बखूबी पकड़ा है और अपने अभिनय से निधि मिश्रा और अश्विनी जोशी ने बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है | उसके बाद उस लड़की की विधवा माँ शादी करके के दूसरे शहर में जाकर रहने लगती है ,मजबूरन उसे वियेना शहर छोड़ना पड़ता है और वह अपने प्रेमी लेखक से जुदा होना पड़ता है |
दो वर्ष बाद उसे अपने दत्तक पिता के रिश्तेदार के गारमेंट कारखाने में काम करने का मौका मिलता है तो वह तुरंत इस उम्मीद में वियेना लौट आती है कि अपने प्रेम को पा सकेगी | ऐसा निश्छल और पवित्र प्रेम जिसमें कोई चाहत या प्रतिकार नहीं था |
वियेना से लौट कर एक दिन लेखक से आखिरकार मिलने में सफल हो जाती है | तब वह 18 वर्ष की हो चुकी थी उसका शारीरिक और मानसिक विकास हो चुका था ,वह भावनाएं भी हिलोरें लेने लगी थी जो एक जवान लड़की के मन में सामान्यतया होती हैं | प्रेम के उसी तीव्र आवेग में वह अपने आपको तीन रात के लिए लेखक को समर्पित कर देती है | प्रेम की उस चरम अवस्था से गुजर कर उसे सुकून मिलता है कोई अफ़सोस नहीं होता , न ही इस बात का कोई दुःख होता है कि वह जिसे प्यार करती है वह उसे आज भी नहीं पहचानता | लेखक उसे प्रेम नहीं करता न ही उसे पता होता है कि कोई लड़की उसे इस क़दर बेलौस प्रेम करती है क्योंकि लेखक एक रईस और अभिजात्य किस्म का लेखक है वह अविवाहित है, औरतों के साथ सम्बन्ध बनाना, ओपेरा में जाना और पार्टी करना उसका शौक है| प्रेम जैसी अनुभूति उसके मन में आती ही नहीं | यहाँ तक कि जब वियेना में वह लड़की मिलती है तब भी वह उसे पहचानता नहीं है | वह एक प्रसिद्ध लेखक है उसका अपना एक आभा मंडल है , पैसा है इसलिए लोग (जिसमें लड़कियां और औरतें भी शामिल हैं ) उस पर मर मिटते हैं | वह जानती थी कि लेखक उस श्रेणी के लोगों में से है दो दोहरी ज़िन्दगी जीते हैं | यानी हाथी के दांत दिखाने के और , खाने के और | एक जीवन वह जिसे सब जानते हैं और दूसरा वह जिसे छुपा कर रखते हैं |
उसे फिर से अपने प्रेमी से बिछड़ना पड़ता है लेकिन उससे उसका लेखक के प्रति प्रेम कम नहीं होता , न ही कोई ग्लानि होती है | वह गर्भवती हो जाती है और अपने प्रेम के बारे में किसी को नहीं बताती ,अपनी माँ और दोस्तों को भी नहीं | बच्चे को जन्म देने के लिए अस्पताल में भर्ती होती है,पैसा पास होता नहीं है, एक प्रसव पीड़ा और दूसरी गरीबी की वजह से अस्पताल में स्टाफ द्वारा जिल्लत की पीड़ा के मनो भावों को उत्तरा बावकर , निधि मिश्रा और अश्विनी जोशी ने जीवंत कर दिया |उनकी भाव भंगिमाएं और संवादों की अदायगी अनूठी थी | जीवन के उस कटु यथार्थ को भी नाटककार इस संवाद के जरिये हमारे सामने रखते हैं कि जिसमें नायिका कहती है कि- “ मैंने महसूस किया कि गरीब जनों को कितनी आत्मिक और दैहिक शर्मिंदगी बर्दाश्त करनी पड़ती है | मैंने यह सब उन बीमार और वेश्याओं के संग साथ रह कर जाना जिनकी नारकीयता के साथ में जुडी थी” | नाटक इकहरा सन्देश लेकर नहीं आता बल्कि जीवन के विभिन्न शेड्स हमारे सामने रखता है | सरकारी अस्पतालों की यही दशा भारत में बहुतेरी जगह देखी जा सकती है और यह पीड़ा सार्वभौमिक सत्य (यूनिवर्सल ट्रुथ ) के रूप में प्रस्तुत होती है और पूरी मानवीय संवेदना के साथ | एक ऐसी माँ के मनोभावों को नाटक में रूपायित करना, जो अपने बच्चे के रूप में प्रेमी को पाकर ही खुश है भले ही बायोलॉजिकल पिता(लेखक) उससे अनभिज्ञ हो | उस इकतरफा अमर प्रेम की भरपाई अपने बच्चे की आवाज़ और हंसी के बीच से करती है | अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए नायिका कहती है –“ तुम तो किसी धारा की तरह मेरे ऊपर से गुजर गए जैसे मैं कोई पत्थर थी | यानी उसे एहसास हो चुका था कि प्रेमी उसे आज भी नहीं पहचानता | औरत के प्रेम की ईमानदारी , उसके त्याग के बहुतेरे उदाहरण हमें मिल जायेंगे लेकिन इतनी पवित्रता , इतनी दीवानगी के उदाहरण विरले हैं , एक तरफ कथ्य की विरलता नाटक की विशेषता है ही पर इसे उत्तरा बावकर की अभिनय प्रवीणता ऊचाइयां प्रदान करती है |पहले दृश्य से दर्शकों से कनेक्ट करता हुआ सीन दर सीन दर्शकों से तादाम्य स्थापित कर लेता है |
प्रेम एक शाश्वत मूल्य है ,उसके बिना जीवन अधूरा है और निश्छल प्रेम जिसमें कोई अपेक्षा नहीं है ,कोई वासना नहीं है उसका कोई सानी नहीं है | स्त्री के उदात्त प्रेम और संघर्ष का कलात्मक आख्यान यह प्रस्तुति कही जा सकती है | शायद इसीलिए लैला मजनू , शीरी फ़रियाद और मूमल की प्रेम कथा आज भी अमर प्रेम कथाओं में गिनी जाती हैं|
मोमबत्ती की लौ की थिरकन के साथ उत्तरा बावकर के चेहरे के उतार चढ़ाव देखने लायक थे| उत्तरा बावकर पिछले पचास वर्ष से रंगमंच की दुनिया में हैं , उन्होंने ब .व् .कारंत ,ओमशिव पुरी , गोविन्द निहलानी ,मृणाल सेन रणजीत कपूर जैसे लोगों के साथ न केवल काम किया है| इसके अतिरिक्त अपने अभिनय की छाप फिल्मों और टी .वी .पर छोड़ी
है | अभिनय के मामले में तीनों लड़कियां अश्विनी जोशी ,निधि मिश्रा , साशा शेट्टी ने उत्तरा बावकर के साथ उस ‘अनजान औरत” के चरित्र को तेरह वर्ष की कोमल उम्र से लेकर माँ बनने और बदलती स्थितियों के साथ मनोभावों को बहुत कुशलता से प्रस्तुत किया है| यह एक भाव प्रधान नाटक है |निर्देशक दौलत वैद द्वारा एक ही चरित्र को चार कलाकारों से एक साथ अभिनीत करवाना एक सराहनीय और सफल प्रयोग कहा जा सकता है | “अनजान औरत” की संवेदनाओं को ,उसकी अनुभूतियों के आरोह -अवरोह को बहुत कलात्मक ढंग से पेश किया है |इससे नाटक में शिथिलता आने के खतरे को दूर करने में काफी हद तक सफलता मिली है | पात्रों की पोशाक ,सेट, ध्वनि ,संगीत और बेले डांस के मार्फ़त वियेना का परिवेश खड़ा करने में निर्देशक सफल रहा है | निहाल करदम का ध्वनि संगीत प्रभावशाली तथा साशा के बेले के मूव बहुत उम्दा थे |मोजार्ट और बिथावन जैसे प्रसिद्ध संगीतकारों का असरदार एवं मधुर संगीत, नाट्य प्रस्तुति को मुकम्मल बनाता है| पूरे नाटक में लेखक की भूमिका में शांत पत्र पढ़ते दिखने वाले सुरेश शेट्टी अंतिम दृश्य में बिछोह ,पश्चाताप और प्रेम को खोने के भावों को बेहतरीन ढंग से पेश करके अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं | अंतिम दृश्य में लेखक में उपजते हुए प्रेम और नायिका के अंतिम सफ़र पर जाने को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया था |
कुल मिला कर यह नाट्य प्रस्तुति हिंदी रंगमंच के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित होगी | मेरा यह मानना है कि नाटक एक सतत प्रक्रिया है ,एक प्रस्तुति उसकी पूर्ण प्रस्तुति नहीं कही जा सकती, उम्मीद है आगे की प्रस्तुतियों में और निखार आएगा तथा और भी ज्यादा सशक्त होंगी |

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